Book Title: Tulsi Prajna 1992 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 78
________________ उत्प्रेक्षावल्लभ, (६) भावशतकम्-नागराज, (७) काव्यभूषणशतकम्-कृष्णवल्लभ, (८) आश्लेषाशतकम्-नारायण पण्डित, (९) अधरशतकम् -नीलकण्ठदी क्षत । आचार्य विद्यासागर आचार्य विद्यासागर के रूप में एक तपस्वी संत-कवि के दर्शन होते हैं। एक ऐसा कवि, जिसका समग्र जीवन ही काव्यमय हो गया है। एक ऐसा योगी. जिसके लिए काव्य भी योगसाधना का एक अंग बन गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य विद्यासागर के रूप में शान्त-रस" ही मूर्तिमान हो उठा है। एक ऐसे तपस्वी-कवि की लेखनी से प्रसूत शान्त-रस का सौन्दर्य कितना..... !! चमत्कारी.......... !!! हो सकता है-इसका मात्र अनुभव ही किया जा सकता है । वस्तुतः जब काव्य ही तपस्या बन जाती है और तपस्या ही काव्य, तब काव्य भी तपस्यात्मक हो जाता है और तपस्या भी काव्यात्मक । इस तपस्यात्मक-काव्य अथवा काव्यात्मक तपस्या से जो कुछ भी निष्पन्न होता है, वह अद्भुत रूप से रमणीय भी होता है और तेजस्वी भी। बालक विद्याधर ....... आचार्य विद्यासागर बनने तक की यात्रा-कथा, अत्यन्त रोचक तथा प्रेरक भी है । इस कलियुग में भी सतयुग का अवतरण हो सकता है, यह आचार्य विद्यासागर ने प्रत्यक्ष करके दिखा दिया । दार्शनिक काव्य आचार्यश्री के शतकों का कथ्य-अमूर्त है। अमूर्त विषयों पर काव्य-रचना करना ही अपने आप में दुष्कर कार्य है । आपके काव्य को "दार्शनिक-काव्य' की संज्ञा दी जा सकती है। आप के द्वारा रचित पांचों शतक दर्शन के विषयों पर लिखे हुए साहित्य के दुर्लभ मोती हैं जो सहज ही कण्ठहार बन जाता है। प्रथम-'श्रमणशतकम् में श्रमणों की चर्या एवं विशेषताओं का काव्यात्मक वर्णन है। आर्या-छन्द में निबद्ध यह शतक यमकमय है । दूसरा 'भावनाशतकम्' भी आर्या-छन्द में निबद्ध है। यह भी यमक-काव्य का उदाहरण है । इसमें चित्रालंकार (मुरज बन्ध) का भी प्रयोग किया गया है। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध जिन भावनाओं द्वारा होता है, उनका अत्यन्त रुचिर वर्णन इस शतक में किया गया है। तीसरा 'निरञ्जनशतकम्' द्रुतविलम्बित-छन्द में निबद्ध है। इसमें भगवान की अत्यन्त हृदय-स्पर्शी स्तुति की गई है । पदों का लालित्य एवं भावों की सुकुमारता इस शतक का वैशिष्ट्य है । चौथे 'परीषहजयशतकम्' में दिगम्बर जैन मुनियों के २२ परीषहों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। द्रुतविलम्बित-छन्द में निबद्ध यह रचना मुनियों के लिए संजीवनी सदृश्य है। पदों की रमणीयता एवं सारल्य इस शतक की विशेषता है । पांचवां 'सुनीतिशतकम्' उपजाति-छन्द में निबद्ध अत्यन्त मनोहारी नीतिकाव्य है । कवि ने अत्यन्त सरस, सरल एवं सुबोध-शैली में एक से एक सुन्दर नीतियों का गुम्फन किया है । प्रस्तुत शतक की कई सूक्तियां/नीतियां पूर्णरूप से मौलिक हैं, अतः उनका चित्त पर विशेष प्रभाव पड़ता है । भर्तृहरि के नीतिशतकम् के समान यह शतक भी विद्वद्जनों में लोकप्रिय होगा-इसमें कोई सन्देह नहीं। १४८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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