Book Title: Tulsi Prajna 1992 04 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 4
________________ संपादकीय जैनागमों की भाषा का मूल स्वरूप गुजरात यूनिवर्सिटी के भूतपूर्वं प्राकृत - पालिविभागाध्यक्ष डॉ० के० आर० चन्द्र की एक ' थीसिस '-- प्राचीन अर्धमागधी की खोज में शीर्षक से प्रकाशित हुई है । दलसुखभाई मालवणिया ने डॉ० के० ऋषभचन्द्र के इस सर्वप्रथम प्रयत्न को प्रशंसा के योग्य कहा है और यह साक्षी दी है कि उन्होंने जैनागमों की भाषा का मूल स्वरूप जानने के लिये अशोक के शिलालेख, पालि-पिटक और जैनागमों से ७५ हजार कार्ड तैयार किये हैं । अर्द्धमागधी में ध्वनि परिवर्तन और रूप विकास को चीह्नने को उन्होंने वर्षों तक कठिन परिश्रम किया है । डॉ० चन्द्र का कहना है कि जैनागमों की रचना पूर्वी प्रदेश- मगध में हुई है और उनकी पाटलिपुत्र वाचना अशोक के शिलालेखों से पूर्ववर्ती है । इस कथन के लिये उन्होंने अनेकों प्रमाण दिये हैं । सूत्रकृतांग (१३) में याथातथ्यम् के लिये 'आहत हियं', आचारांग (१९१.२५४ ) में यथाश्रुतम् के लिये 'अहासुतम् ' प्रयोग हैं। ऐसे और भी अनेकों उदाहरण उन्होंने दिये हैं जो धौली, जोगड़, कालसी आदि के अशोक - शिलालेखों में यथा के लिए प्रयुक्त 'अथा' से मेल खाते हैं । इस क्षेत्र की पुरानी भाषामुण्डा में 'ह' प्रत्यय का बाहुल्य है जो यहां 'अथा' के स्थान पर 'अहा' के रूप में दीख पड़ता है । वर्तमान कृदन्त - 'मान' के लिये आगमों में मीन' का प्रयोग है जो धौली के पृथक् लेख में प्रयुक्त 'संपटिपजमीने' और 'विपतिपादयमीने' जैसे पदों में मौजूद है । अर्द्धमागधी में 'रकार' के लिये 'लकार' मिलता है । ऐसा अशोक के पूर्वी क्षेत्रीय लेखों में भी है । 'सामंत' शब्द का 'समीप' के अर्थ में प्रयोग - 'अदूरसामंते', अर्द्धमागधी 'अनेकों स्थलों पर है, वही अशोक के धौली, जोगड, कालसी आदि लेखों में भी है किन्तु गिरनार ( २. ३) में 'सामीपं ' है । 'अकस्मात्' - पद वहां ज्यों का त्यों बच गया है । आयारंग, सूयगडंग और उत्तराज्भयण में भाषा के प्राचीन तत्व हैं । डॉ० चन्द्र ने 'क्षेत्रज' - शब्द के आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कंध ) में से १६ प्रयोग एकत्र किये हैं और संपादकों द्वारा उन प्रयोगों को भिन्न-भिन्न रूप में लिखने की बात कही है। यहां मूल शब्द खेतन्न' होना चाहिये । इसी प्रकार आचारांग प्रथमद्भुत स्कंध, प्रथम अध्ययन, प्रथम उद्देशक का प्रारंभिक वाक्य - 'सुतं मे आउस तेण भगवता एवमवखातं - होना चाहिये, किंतु संपादकों ने उसके अनेक रूप बना दिए हैं। डॉo चन्द्र की यह अभिज्ञा और प्राचीन अर्द्धमागधी की खोज निस्संदेह महत्त्वपूर्ण है । यह भारतीय भाषा अध्ययन के लिए नये आयाम खोलती है और प्राकृतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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