Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 114
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । इन दोनों का लेखक अगर एक होता तो उसे दो लेख देने की जरूरत ही क्या थी ? ' अंधश्रद्धा का नमूना ' इस का विषय 'ढांक पिछोडा' इसी लेख में क्यों नहीं दे दिया ? एक लेख में कुछ भी न लिख कर वही लेखक उसी विषय में दूसरा लेख देवे यह तो कमअक्ल के सिवा कोई भी नहीं मान सकता !। लेखक जी ! जरा आंखों के पड़दे और हृहय का कबाट खोल के देखो और तलाश करो कि 'अंधश्रद्धा का नमूना' लेख किसने छपवाया है ? विना ही तपास किये किसी का बहेम धरना अधम और बेवकूफ आदमियों का काम है। 'अंधश्रद्धा का नमूना' लेख के लेखक ने 'ताराचंद्र' के लेख की ऐसी तो युक्तिपूर्ण समालोचना की है कि तुम सारे त्रैस्तुतिक इकट्ठे हो कर तलप पडो तो भी उसका निराकरण नहीं हो सकता । तुम चाहे उसे विषमालोचना ही कहो, क्यों कि जो विषय जिसके लिये अतिकठिन होता है वह उस के आगे विषम ही है, यह समालोचना भी तुम्हारे लिए उसी प्रकार की है अतः तुम इसे विषमालोचना ही कहिये। फिर लेखक अपनी बुद्धि का प्रकाश करते हैं कि-- "पूर्वाचार्य नवांगवृत्तिकारक-श्रीमदभय-देवसूरिजी महाराज पंचाशक सूत्रवृत्ति में ' चतुर्थ स्तुतिः किलार्वाचीना' इस वाक्य में (किल) अव्यय का जितना अर्थ व्याकरण, कोश, या जैन शास्त्रों में किया हैतिन सर्व अर्थ से चोथी थुई अर्वाचीन ( नवीन ) ही सिद्ध होती है" श्रीमद् अभयदेवमूरिजी ने चतुर्थ स्तुति को अर्वाचीन कहा है' यह कहने वाले झूठ के पूतले हैं, अभयदेवमूरिजी ने Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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