Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 119
________________ १०० त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । इत्यादि शास्त्रीय वचनों से-' थुइजुअल-स्तुतियुगल ' इस का अर्थ हुआ स्तुतिचतुष्क यानी चार थुई, इस का युगल कहने से यानी इसे दो दफे गिनने से ' आठ स्तुति ' यह अर्थ पाया, अतः स्तुतियुगलयुगल से ( आठ थुईयों से ) और यावत् चैत्यस्तवादि दंडकों को दुगुना करने से 'उत्कृष्टमध्यमा' नामा आठवीं चैत्यवंदना होती है । ८। इसी आठवीं चैत्यवंदना को स्तोत्र, प्रणिपातदंडक और प्रणिधान त्रिक के साथ करने से संपूर्णा-'उत्कृष्टोत्कृष्टा' नाम की नवमी चैत्यवंदना होती है । ९ । प्रियपाठक ! आप मध्यस्थभाव से कहिये कि भाष्योक्त चैत्यवंदना के इन नव भेदों में एक भी कोई ऐसा भेद है जिस में तीन ही स्तुतियां की जाती हों ?। जब भाष्यकार इस प्रकार स्पष्टतया चार और आठ स्तुतियों से चैत्यवंदना का विधान प्रतिपादन करते हैं और अभयदेवमूरि इसे प्रमाण मानते हैं तो यह कौन बुद्धिमान् कहेगा कि 'अभयदेवमूरि ऐसा कहते हैं कि चतुर्थ स्तुति नयी है ? वे आप ऐसा नहीं कहते किंतु ओर कोई ऐसी व्याख्या करते हैं जिसे आप लिखते हैं और शास्त्र-आचरणा विरुद्ध जान कर उस में आप अपनी अरुचि जाहिर करते हैं। __कहा जाय कि-अरुचि जाहिर करते हैं-यह कैसे जाना ? तो उत्तर यह है कि उन के मुख से निकला हुआ 'किल ' शब्द यह बात कह रहा है, क्यों कि प्रामाणिक कोषकारोंने जो जो 'किल ' शब्द के अर्थ किये हैं उन सब से यही सिद्ध होता है कि लेखकों के प्रिय पूर्वोक्त व्याख्यान में टीकाकार की आप की संमति नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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