Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 122
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा। १०३ m.. ........................................ थुई करने का ना नहीं तो हां तो अवश्य ही हुआ " पाठकगण ! देखिये त्रैस्तुतिक लोग मुख से तो पुकारते हैं 'हम तपगच्छ की समाचारी मुजब चलते हैं, और अंदर से मनःकल्पित नयी समाचारी बना के उस मुजब चलते चलाते हैं, यदि तपगच्छीय सामाचारी मुजिब चलते होते तो ' नयी कलमें' बांधने की ही क्या जरूरत थी? क्या तपगच्छ में प्राचीन समाचारी ग्रन्थ नहीं थे ? इस से तो यही पाया जाता है कि — पूजा प्रतिष्ठादि विशिष्ट कार्यों में चार; बाकी तीन थुई करनी चाहिये। इत्यादि कथन सरासर असत्य-प्रलाप है, अगर किसी भी शास्त्र या समाचारी ग्रन्थ में तीन स्तुति का विधान होता तो इस के लिये नयी समाचारी ( कलमें ) बांधने की ही क्या आवश्यकता थी। फिर लेखक अपनी असत्यता का नमूना दिखाते हैं " तुम्हारे दादा गुरु को राजेन्द्रसूरिजीने हित शिक्षा करी किगृहस्थपन का आरंभ छूटने के लिये तुमने अपने हाथ से भेष धारण किया ! तब मैंने श्रावक का व्रत उचरा के वासक्षेप किया है क्यों कि-चक्षुहीन को शास्त्र में दीक्षा देने की मना है वास्ते अब तुम अपने आत्मा से लोगोमें साधुपना श्रद्धते श्रद्धाते हो? यह व्यवहार अच्छा नहीं ! तब कदाग्रह के वश हो के तुम्हारे गुरू और दादा गुरू दोनों ने तीन थुई को छोड के ' जालोर में एकान्त सामायिक सहित पोसह प्रतिक्रमणादिक में चार थुई का शरण लिया ! जब से मारवाड में तीन और चार थुई संबंधी झगडा टंटा का वृक्ष आठ आना बढा ! अब तुमने तो सोले आना कर दिया ! क्यों कि-प्रथम तो तुम्हारे गुरु को चक्षुहीन का शिष्य रहने में लज्जा आइ ! तब श्वेताम्बर गुरु को छोड के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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