Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 132
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा। ११३ 'रत्नविजय' पर्दानशीन होता है और उस की जगह पर 'राजेन्द्रसरि' यह अभिनव नाम उपस्थित होता है, अब आप इसी के खेल देखें गे । हमारी कलम भी अब इसी नये नाम पर मोहित है। निश्चय दृष्टि से वे चाहे ' राजेन्द्र' हो या 'रङ्केन्द्र' 'मरि' हो या 'रि' हमें इस बात से प्रयोजन नहीं है, इस मीमांसा का यह स्थल भी नहीं है, हमें प्रयोजन है उन के बाह्य कर्तव्यों से, और उन्हीं की हम मीमांसा कर रहे हैं। ' नामनिक्षेप ' भी जैनसिद्धान्त में स्वीकृत है। हमारे लिये यह सिद्धान्त इस जगह बडा काम देगा । इसी सिद्धान्त के आधार से हम ' रत्नविजयजी' को निःसंकोच 'राजेन्द्रमूरि' जी इस नाम से लिखेंगे । इस में हमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है। राजेन्द्रसरिजी ने यति-श्रीपूज्य आदि सर्व अवस्थाओं में क्या क्या खेल खेले हैं-यह सब कहने का यह स्थान नहीं है। उन गुप्त और अयोग्य खेलों को इस सभ्यताप्रिय जमाने में प्रकट करना है भी अयोग्य । जो बात प्रकृत-विषय में उपयोगी है सिर्फ उसी का यहां पर उल्लेख करना सार्थक है। संवत् १९२५ के आषाढ वदि १० के रोज राजेन्द्रसरिजी ने गांव 'जावरे' में विना ही गुरु के स्वयं क्रियोद्धार किया। यहीं से मानो इन की लीला का चतुर्थ अंक प्रारंभ हुआ। पहले कहा जा चुका है कि तलावत धनराजजी और दलीचंदजी ने दीक्षा लेने का पूर्ण विचार कर लिया था । जब राजेन्द्रमूरिजी ने व्यवहारिक परिग्रह त्याग दिया तो धनराजजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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