Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 145
________________ १२६ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । __ (१) अर्थ-' इस विधि से साधुओं को त्रिविध नमन कर के पीछे साधुसाक्षिक ' करेभि भंते' इत्यादि करके यदि चैत्य हों तो उन्हें प्रथम वांद ले और साधुओं के पाससे रजोहरण-दंडासण या निपद्या मांगे, जो घर पर हो तो उस के औपग्रहिक रजोहरण-चरवला होता है, अगर न हो तो वस्त्र के छेड़े से काम लेना, पीछे ईर्यावही पडिकम कर आलोयणा करके आचार्यादिक को वंदन करे।' (२) ' वह श्रावक दो प्रकार के होते हैं-ऋद्धिप्राप्त ( ऋद्धिमन्त ) और अनृद्धिप्राप्त, ( सामान्य )। जो ऋद्धिप्राप्त हो वह साधुसमीप जाकर सामायिक करे और अनृद्धिप्राप्त हो वह घर से ही सामायिक करके पांचसमति पालते हुए तीन गुप्तियों से गुप्त साधु की तरह साधुसमीप जावे, वहां जाकर फिर साधु साक्षिक सामायिक करे ( उच्चरे), बाद ईयर्यावही पडिकम कर जिन प्रतिमाएं हों तो प्रथम वंदन करे फिर पुस्तक पढ़े या सुने ।' उपर्युक्त पाठों का भावार्थ भावार्थ इन का यह है कि सामायिक कर्ता श्रावक दो प्रकार के होते हैं । पहला, राजा मंत्री विगैरह ऋद्धिमन्त, और दूसरा साधारण । _ऋद्धिमन्त श्रावक को साधु के योग में स्वयोग्यतानुसार उन के पास जाके ही सामायिक करना चाहिये जिससे कि जैनधर्म और साधुओं की उन्नति हो । दूसरे दर्जे के श्रावक को जहां तहां भी फुरसत मिलने पर सामायिक आदरना चाहिये, पर यह बात जरूरी है कि स्थान नितिमय होना चाहिये, धंधार्थी सामान्य श्रावक को साधुओं का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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