Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 151
________________ १३२ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । पत्र पक्षपाती है, हां यह बात जरूर है कि वह सत्यग्राही अवश्य है, और यही कारण है कि सत्यतापूर्ण लेखों को वह बड़े आदर के साथ स्थान देता है-छाप देता है, आप का असत्यपूर्ण लेख 'जनशासन ' ने नहीं छापा तो इस का दोष जनशासन के शिर चढाना मूर्खता है, यह दोष आप की ही असत्यता का है और इसी के शिर मंढा जाय तो कुछ भी अनुचित नहीं होगा । -उपसंहारप्रियपाठकगण ! अब मैं हर्ष-तीर्थ के लिखे हुए नाम से तो समुचितउत्तरदानपत्र' पर गुण से ' अनुचितउत्तर दान पत्र' की मीमांसा को पूर्ण करता हूं। यद्यपि अनेक बातें इस में लिखने योग्य उपस्थित हैं तथापि इस जगह अब ज्यादा लिखना मुनासिब नहीं समझता हूं। वास्तव में अधिक लिखना है भी व्यर्थ, यह तो मुझे आशा ही नहीं कि इस पुस्तक में लिखी हुई सत्य बातें भी त्रैस्तुतिक लोग अंगीकार कर लेंगे, क्यों कि वे लोग-असदाग्रह से पूर्ण भरे हुए हैं, उन में यह विवेक ही नहीं है कि सत्य बात कौनसी है, अगर किन्हीं में है भी तो वे जानते हुए भूलते हैं, उन की यह तो मान्यता ही नहीं कि ' सच्चा सो मेरा' । वे तो सचमुच यही मान बैठे हैं कि 'मेरा सो ही सच्चा'। यह मेरा कथन आप अतिशयोक्तिपूर्ण न समझें, वे लोग मेरे कथन से भी अधिक अंधश्रद्धा वाले हैं, इस विषय में आपको चाहिये जितने प्रमाण मिल सकते हैं, मेरी तर्फ से भी दो एक सुन लीजिये-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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