Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 150
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा। नहीं सकता तो वे उसे नीचे मुजब ठंडा उपदेश करने लगे कि "जैनशासन पत्र को ऐसे लेख कदापि प्रकाश नहीं करना चाहिये कि-जिस में पक्षपात दोष या जैनधर्म की हानि हो ।" लेखकजी ! आप का उपदेश तो योग्य है परंतु आप जानते हैं कि पत्र प्रकाशक लोग बहुत पहुंचे हुए होते हैं, वे प्रथम यह अच्छी तरह जांच लेते हैं कि कौनसा लेख कितना लाभकारक है, फिर उस लेखको प्रकाशित करते हैं जो अच्छा फायदा करनेवाला हो । हां, सभी लेख ऐसे नहीं होते कि उन्हें पढ कर सभी लोग राजी हो जायँ, और ऐसा होना है भी मुश्किल, ऐसी दवा शायद ही कोई होगी जो सब रोगियों के लिये हितकर हो। यदि सभी रोगों का विजय करने के लिये एक ही औषध-वह भी मीठा-समर्थ हो बैठता हो बाकी के सब अमधुर औषधों का पृथिवी पर उत्पन्न होना ही व्यर्थ हो जाता, परंतु ऐसा होता नहीं है, सब रोगों का औषध एक नहीं है, ऐसे ही सब दोषों को दूर करने के वास्ते एक मीठे रस का लेख ही समर्थ नहीं होता । और लोकस्थिति तो यहां तक कहती है कि 'कटुरस' जितना गुणकारक है उतना मीठा नहीं । यह बात सही है कि मीठी दवा से रोग मिट जाय तो कटु की जरूरत नहीं, परंतु अखबार वालों को यह कहने की ही क्या जरूरत थी?, वे कई वर्षों से मिष्ट औषधों से उपचार कर ही रहे थे, पर सब निष्फल ! कुछ भी गुणप्राप्ति नहीं हुई तब उन्होंने कटु ओषधी की तर्फ दृष्टि नांखी-कुछ कटु लेखों से आप के मुंह बिगाडे । इस से यह कहना उचित नहीं कि 'जैनशासन' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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