Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 152
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । १३३ “ सूरिराजेन्द्र जी मुद्रा छोडी ___ अष्टकर्मममता को तोडी। सच्चिदानंद से प्रेम तो जोडी शिवरमणी गये जल्दिसे दोडी ॥ " (गुरुनिर्वाण लावनी-पृष्ठ ९) “ पंचम काल में सूरिविजय__ राजेन्द्रतुल्य नहि कोइ होगा । गोत्र तीर्थकर लिया है शिवरमणी का सुख भोगा ॥" ___ (गुरुनिर्वाण लावनी-पृष्ठ १३ ) पाठकगण ! देख लीजिये, अंधश्रद्धा में है कुछ खामी ? राजेन्द्रसरिजी को तीर्थकर गोत्र बंधा कर यहीं से सीधे शिवरपणी के सुख भुगवाने वाले-मुक्ति में भेजने वाले त्रैस्तुतिकों की अंधश्रद्धा की हद्द आ गई या नहीं ? । ऐसे अंधविश्वासी बुद्धिहीन कदाग्रहग्रस्त मनुष्यों को यह मेरा निबन्ध फायदा पहुंचावेगा ऐसी मान्यता मैं स्वप्न में भी नहीं रखता। मेरी जो कुछ आशा है वह तत्त्वजिज्ञासु और मध्यस्थ दृष्टि वाले सज्जनों के प्रति है, क्यो कि इस मीमांसा की सत्यता के साक्षी वही होंगे जो सत्यप्रिय और विचार शील हैं, और उन्हीं की सत्यग्राहिता से यह मीमांसा फलवती होंगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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