Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 143
________________ त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा । " साहम्मिआ य एए महट्टिआ सम्मदिट्टिणो जेण । एतो चिय उचि खलु एएसि इत्थ पूयाई ॥ " ( पंचाशकमकरण ) अर्थ-ये ब्रह्मशान्ति, अम्बिका विगैरह महर्द्धिक देव साधार्मिक ( समानधर्म वाले ) हैं इस लिए यहां पर इन की पूजा और स्तुति वगैरह करना ही चाहिये । " विश्वविघायणहेउं चेईहर रक्खणाय निश्च पि । कुज्जा पूयाईय- मेयाणं धम्मवं, किंच ॥ मिच्छयगुणजुआणं निवाइयाणं करेंति पूयाई । इहलोकए, सम्मत्त -- गुणजुआणं न उण मूढा || ( जीवानुशासन ) अर्थ-विघ्नों के नाश के निमित्त और जिनमंदिरों की रक्षा के लिए धर्मी पुरुष इन ब्रह्मशान्त्यादि देवों की नित्य ही पूजा तथा कायोत्सर्ग स्तुति आदि करें । ( इन की पूजा विगैरह नहीं करने वालों को ग्रन्थकार उपालंभ देते हैं कि ) मिथ्यात्वगुणयुक्त राजादिक की तो इह लोकार्थ पूजा करते हैं और सम्यक्त्वगुणयुक्त साधर्मिक देवों की (पूजा) मूर्ख नहीं करते । १२४ लेखक जी ! देखिये चार थुई के शास्त्रों में सम्यक्त्वी देवों की पूजा का निषेध किया है कि उन की पूजा नहीं करने वाले गृहस्थ को मूर्ख - अज्ञानी कहा है ? | फिर लेखक अपनी पंडिताई का नमूना दिखाते हैं कि" सामायिक व्रत में रगडा डाल कर तपागच्छ के पीताम्बर संवेगी तो श्री आवश्यक सूत्र को उत्थाप के सामायिक उच्चार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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