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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा ।
" साहम्मिआ य एए महट्टिआ सम्मदिट्टिणो जेण । एतो चिय उचि खलु एएसि इत्थ पूयाई ॥ " ( पंचाशकमकरण )
अर्थ-ये ब्रह्मशान्ति, अम्बिका विगैरह महर्द्धिक देव साधार्मिक ( समानधर्म वाले ) हैं इस लिए यहां पर इन की पूजा और स्तुति वगैरह करना ही चाहिये ।
" विश्वविघायणहेउं चेईहर रक्खणाय निश्च पि । कुज्जा पूयाईय- मेयाणं धम्मवं, किंच ॥ मिच्छयगुणजुआणं निवाइयाणं करेंति पूयाई । इहलोकए, सम्मत्त -- गुणजुआणं न उण मूढा || ( जीवानुशासन ) अर्थ-विघ्नों के नाश के निमित्त और जिनमंदिरों की रक्षा के लिए धर्मी पुरुष इन ब्रह्मशान्त्यादि देवों की नित्य ही पूजा तथा कायोत्सर्ग स्तुति आदि करें ।
( इन की पूजा विगैरह नहीं करने वालों को ग्रन्थकार उपालंभ देते हैं कि ) मिथ्यात्वगुणयुक्त राजादिक की तो इह लोकार्थ पूजा करते हैं और सम्यक्त्वगुणयुक्त साधर्मिक देवों की (पूजा) मूर्ख नहीं करते ।
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लेखक जी ! देखिये चार थुई के शास्त्रों में सम्यक्त्वी देवों की पूजा का निषेध किया है कि उन की पूजा नहीं करने वाले गृहस्थ को मूर्ख - अज्ञानी कहा है ? |
फिर लेखक अपनी पंडिताई का नमूना दिखाते हैं कि" सामायिक व्रत में रगडा डाल कर तपागच्छ के पीताम्बर संवेगी तो श्री आवश्यक सूत्र को उत्थाप के सामायिक उच्चार के
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