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त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा
पहिले ही इरियावही करते कराते हैं ! और खरतरगच्छ के पीताम्बर संवेगी श्रीमहानिशीथ सूत्र को उत्थाप के सामायिक उच्चार के बाद ही इरियावही करते कराते हैं ! इत्यादि श्वेताम्बर धर्म में अनेक रगडा डाल कर जैनभिक्षु सरिखे ही पीताम्बर संवेगीयो ने जुदा मत निकाला है ! और जगह २ संघ में विरोध जगाया है "
लेखकों को आंखें खोल के देखना चाहिये कि तपागच्छ के संवेगी आवश्यकमत्र का उत्थापन करते हैं या तुम्हारे जैसे असंवेगी ।
पाठक महोदय ! इस विषय के कुछ सिद्धान्त सुन लेवें और फिर सोचें कि इन में आदरणीय सिद्धान्त कौनसा है । (१) " एआए विहीए तिविहेण साहुणो णमिऊण पच्छा साहुसक्खि
करेइ ' करेमिभंते ' ( इत्यादि ) जावसाहू पज्जुवासामि त्ति काऊण, जइ चेइआई अस्थि तो पढमं वंदइ, साहुसगासाओ रयहरणं निसज्जं वा मग्गति । अह घरे तो से उवग्गहिअरयहरणं अस्थि, तस्स असति वत्थंतेणं । पच्छा ईरिआए पडिक्कमति, पच्छा आलोएत्ता बंदति आयरिआदी । "
( आवश्यकचूर्णि) (२) " सो अ सावओ इढिपत्तो अणिढिपत्तो अ । जो इढिपत्तो सो
गओ साहुसमीवे सामाइयं करेइ । जो पुण अणिढिपत्तो सो घराओ चेव सामाइयं काऊण पंचसमिओ तिगुत्तो जहा साहू तथा (हा) गच्छइ, साहुसमीवे पत्तो पुणो सामाइयं करेइ, ईरियावहिआए पडिक्कमति, जइ चेइआई अस्थि तो पढमं वंदइ पच्छा पढइ सुणइ वा"
( नवपदप्रकरण वृत्ति)
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