Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 141
________________ १२२ त्रिस्तुतिक- मत--मीमांसा । anoon.in जहां पुराने मंदिर मौजुद हैं, और उन की तो संभाल और सेवा पूजा का भी ठिकाना नहीं ऐसे स्थानों मे नये मंदिर खड़े करवाने की प्रेरणा करना, यह कीर्ति की अभिलाषा नहीं तो और क्या हो सकता है । बड़े खेद की बात है। जैनधर्मियों की घटती के पोकार प्रतिदिन सुनाई दे रहे हैं, जैनतीर्थों और मंदिरों की दुर्दशा के दुःखप्रद समाचारों से कान भराते जाते हैं, अविद्या की प्रबलता जैनों के शिर स्वार हो रही है, जैनधर्म के पालकों को गरीबी से भीख मांग के पेट भरने का वक्त आ गया है, साधु, उपदेशक और सामयिक पत्र विगैरह समाजहितैषी गण; इन दुःख के समाचारों को पुकार कर के जैनसमाज के कानों में पहुंचा रहे हैं तो भी समाज जागता नहीं है, कदापि जागृत होने की चेष्टा करता है तो कीर्ति के लोभी समय के अनजान साधु उसे जागने नहीं देते-वे इस को समय के अनुपयोगी जीर्ण सडे हुए विचारों की निद्रा में पड़े रखना ही चाहते हैं। तीर्थकर गोत्र, स्वर्ग के सुख और मुक्ति के महल का लोभ बता कर कीर्ति के भूखे जैनों से बिनजरूरी कार्यों में लाखों रुपयों की आहुतियां दिलाते हैं, पर गरीब जैनों के दुःख की तर्फ कोई भी नहीं देखता, अज्ञानी जैन बालक अपना परमपवित्र धर्म छोड के अन्यधर्म की शरण लेते हैं-इस तर्फ किसी का खयाल तक नहीं है ! । अफसोस ! ऐसे उपदेशक और धर्मियों की आंखें कब खुलेंगी और अपने कर्तव्य की तर्फ लक्ष्य देंगे ? । फिर लेखक अपनी अज्ञता की निशानी बताते हैं कि" तुम्हारे जैसे ऐकान्तिक चार थुई के मतवाले को पृच्छा करेंगे को समय के अ तीर्थकर गोत्र व जैनों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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