Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 139
________________ १२० त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा । पाठक महोदय ! यदि आप संस्कृत के जान हैं तो देख लेवें राजेन्द्रसूरिजी के अर्थ की असत्यता । अगर स्वयं नहीं समझ सकते हो तो किसी निष्पक्षपाती विद्वान् से पूछ के निर्णय कर लो कि उपर्युक्त पाठों का अर्थ राजेन्द्रसूरिजी ने कैसा असंगत और असत्य लिखा है ! । मैं इन सब स्थलों की समालोचना करना विस्तार के भय से छोड देता हूं। फिर उन्हीं पत्रों में राजेन्द्रसूरिजी अपनी मत कल्पना का परिचय दिखाते हैं कि "वंदेत्तु में गाथा तयालीस ४३ थेट की ने फेर सात गाथा कोइये नवी खेपन करी विस की मालुम नहीं।" लेखक जी ! तुम भी सौचो और तुम्हारे गुरु को भी पूछ लो कि यह भी राजेन्द्रमूरिजी की युक्ति शास्त्र खिलाफ है या नहीं ? । कहां तक लिखें, जैसे २ राजेंद्रमूरिजी के असद्विचारों के ढेर उनाड़ते हैं वैसे ही वैसे उन में अशुद्धियों के कीडे किलबिलाते हुए नजर आते ही रहते हैं । आजकल के उन के कइएक साधुओं के विचारों की दशा तो इस से भी बढ़ी चढ़ी है । इन की असद् गन्ध के आगे तो हमें सुब से दम लेना भी मुश्किल हो गया है। फिर लेखक अपने राजेन्द्रमूरिजी की बहादुरी का ब्युगल फूंकते हैं कि-- " गोलवाड स्थल में श्री कोरटाजी तीर्थ शिवगंजादि सहर गांवो में जीर्णोद्धार तथा नवीन मंदिरों की प्रतिष्ठा और सेंकडों प्रतिमाओं की अंजन शलाका करवाई. फिर जालोरी स्थल में जीर्णोद्धार तथा अंजन शलाका करवाई. और सिरोही राज्य विगरे स्थलो में प्रतिष्ठा अंजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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