Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 138
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । एसा पाठ का परमार्थ यह हे के उपचय करी हे पूजा सामग्री जिनो ने एसे" क्या ही असत्य डिंग है ! ९६२ में हरिभद्रमरि हुए ऐसा किसी भी जैन शास्त्र या इतिहास से सिद्ध नहीं होता, शास्त्र में तो सिर्फ यह उल्लेख पाया जाता है कि ९६२ की साल में सिद्धर्षि ने ' उपमितिभवप्रपञ्चा कथा' समाप्त की। सिद्धर्षि ने हरिभद्रमूरिजी अपने धर्मगुरु लिखे हैं इस कारण से यदि '९६२ की साल में हरिभद्रमूरि हुए ' ऐसा मानते हो तो बडी भूल है, सिद्धर्षिजी के ही लेख से हरिभद्रमूरि उन से बहुत पुराने थे ऐसा सिद्ध हो चुका है, इस लिये सिद्धर्षि के सत्ता-काल को हरिभद्र मूरिजी का उत्पत्तिसमय कहना नितान्त मूर्खता है । उपचितपुण्यसभाराः ' इस का अर्थ भी राजेन्द्रमरिजीने सिर्फ अपनी मनःकल्पना से ही किया है, यह भी उन की कुकल्पनाओं में का ही एक नमूना है । उन्हीं पत्रों में " किमित्याह-उत्कृष्यत इत्युत्कर्षा- उत्कृष्टा । इदं च ब्याख्यानमेके ‘तिण्णी वा कट्टई जाव थुईओ तिसिलोगिआ' इत्येतां कल्पभाष्यगाथां, पणिहाणं० " इस पाठ का वे कैसा कल्पित अर्थ करते हैं पढ लीजिये " केसे जाणी एसा टिकाकारने कोइ पूछे तो कहते हे के उत्कृष्ट चैत्यवंदन कल्पभाष्यकार तीन थुइ का लिखते हे तीन थुइ करणा यावत् छेली तीन श्लोक की वर्द्धमान थुइ एसा पाठ से हम जाणते हे या चोथी नवी हे " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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