Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 135
________________ ११६ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । " तुम्हारे दादा गुरु को राजेन्द्रसूरिजी ने हित शिक्षा करी" -इत्यादिक कटु लेख में हमारा दादागुरु वे किस को लिखते हैं । अब आप इस बात को आसानी से समझ सकेंगे कि जिस धनराज के विषय में आपने अद्भुत वैराग्य-भावना का पाठ पढ़ा है उसी महानुभाव को राजेन्द्रमूरिजी ने प्रथम-दीक्षा में 'धर्मविजय' और द्वितीय-बडी दीक्षा में 'कीर्तिचंद्र' जी बनाया था। बस इसी महात्मापर ये सजन शिरोमणि लेखक अपने अनन्तानुबन्धी क्रोध की ज्वालाएं बरसा रहे हैं, इसी महापुरुष के लिये वे लिखते हैं कि राजेन्द्रमूरि जी ने दीक्षा नहीं दी। प्रियपाठक ! आप ही सोचिये कि ऐसा महामृषावाद का उदाहरण आप ओर कहां पा सकते हैं या पा सकेंगे ? । दुनिया में ऐसा भी मनुष्य आप को कहीं दिखाई दिया-जो मध्याह्न को मध्यरात्रि और मूर्य को अन्धकार का ढेर कहता फिरता हो ?। यदि कहोगे कि नहीं, तो महामृषा वाद का दृष्टान्त भी दूसरी जगह नहीं। लेखक जी ! आप इस विषय में आज कल के बाल हैं, आप पुराणी हकीकत से अज्ञात होने से गप्पीदासों के मुख से जो जो सुनते हो उसी को सत्य मानलेते हो, परंतु तकलीफ़ उठा कर पुराने इतिहास को पहो और जिज्ञासु भाव से तलाश करो, पीछे मालूम होगा कि-' तुम्हारे दादा गुरु को राजेन्द्रमूरिजी ने दीक्षा नहीं दी ' यह मानना कितना सत्य है !। हमारे गुरुमहाराज को महाराज श्रीकीर्तिचंद्र जी के शिष्य रहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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