Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 128
________________ त्रिस्तुतिक - मत-मीमांसा । १०९ उपाश्रय में मौजुद थे, उन के नाम-श्रीमाली ( ब्राह्मण ) हठोजी, मानाजी आलुजी, सेरा रूपाजी, तुलसा सिवाजी और शेठ वाघजी विगैरह । इन सब महाशयों के समक्ष वह लखत धनराज और दलीचंद ने दफ्तरी- रत्नविजय जी के सिपुर्द किया। श्रीपूज्यपदवी का अभिलाष ।। रहते २ जब रत्नविजयजी के ऊपर आहोर वाले श्रद्धावान् हो गये तब उन्होंने श्रावकों से कहा-' नाडोलसे मेरे गुरुजी को बुला लाओ, मुझे श्रीपूज्य बनने के लिये मालवे की तर्फ विहार करना है।' इस के उत्तर में श्रावकों ने कहा कि 'सुरेंद्रसागरजी को उपाध्यायपद देके पीछे से श्रीपूज्य नाकबूल हो गये हैं, इस वास्ते वर्तमान श्रीपूज्य हम से भी नाराज हैं सो आप ही को हम श्रीपूज्य बना लेंगे।' पूर्वोक्त ठहराव नक्की कर के आहोर वालों ने रत्नविजयजी के गुरु-' प्रमोदविजय ' जी को लेने को आदमी भेजा । उस वक्त पौष वदि १० के मौके पर श्रीपूज्य 'वरकाणा' तीर्थ पर आये हुए थे । प्रमोदविजयजी भी — नाडोल' से वरकाणे आये थे लेकिन इन के और श्रीपूज्य के आपस में अनबनाव जैसा था। आखिर आहोर के मनुष्य के साथ प्रमोदविजयजी आहोर आये और गांव के बाहर गोड़ी पार्श्वनाथ के मंदिर के पास सामियाना ( तंबू ) खडा करवा के वहां ठहरे । बाद पौष सुदि १५ पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल में सामुजा के फले' हो कर बाजते गाजते गांव में प्रवेश किया और उपाश्रय में उतरे। एक दिन रत्नविजयजीने श्रावकों को कहा कि मेरे और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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