Book Title: Tran Bhashya Bhavarth ahit
Author(s): Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
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२५८
[ चैत्यवंदन भाष्य ]
नव अहिगारा इह ललियवित्थरावित्तिमाइ अणुसारा। तिनि सुअपरंपरया, बीओ दसमो इगारसमो ॥४६॥ आवस्सयचुन्नीए, जं भणियं सेसया जहिच्छाए । तेणं उजिताइवि, अहिगारा सुअमया चैव ॥ ४७ ॥ बीओ सुअत्थयाई, (इ)अत्थओ वन्निओ तहिं चेव । सक्कथयंते पढिओ, दव्वारिहवसरि पडत्थो ॥ ४८ ॥ असढाइन्नणवज्जं, गीअत्थ अवारयंति मज्झत्था । आयरणावि हु आण--त्ति वयणओ सुबहु मन्नंति ॥
॥ ४९ ॥
उ वंदणिज्ज जिण-मुणि-सुय-सिद्धा इह सुरा य सरणिज्जा । चउह जिणा नाम ठ (ह)वण दव्व भावजिणभेएणं
॥ ५० ॥
नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिदिपडिमाओ । दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥ ५१ ॥ अहिगयजिण पढमथुई, बीया सव्वाण तइय नाणस्स । वेयावच्चगराणं, उवओगत्थं चउत्थथुई ॥ ५२ ॥ पावखवणत्थ इरियाई वंदणव्वत्तियाइ छ निमित्ता । पवयणसुर सरणत्थं, उस्सग्गो इय निमित्त ॥ ५३ ॥

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