Book Title: Tran Bhashya Bhavarth ahit
Author(s): Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 271
________________ त्याख्यान २६६ [प्रत्याख्यान भाष्य] तह मज्झपच्चखाणेसु न पिहु सूरुग्गयाइ वोसिरइ । करणविहि उ न भन्नइ, जहावसीआइ बियछंदे ॥९॥ तह तिविह पच्चखाणे, भन्नंति य पाणगस्स आगारा। दुविहाहारे अच्चित्त-भोइणो तह य फासुजले ॥ १० ॥ इत्तच्चिय खवणंबिल-निविआइसुफासुयं चिय जलं तु। सढ्ढा वि पियंति तहा, पच्चक्खंति य तिहाहारं ॥११॥ चउहाहारं तु नमो, रतिपि मुणीण सेस तिह चउहा। निसि पोरिसि पुरिमेगा-सणाइ सहाण दुतिचउहा॥१२॥ खुहपसम खमेगागी, आहारि व एइ देइ वा सायं । खुहिओ व खिवइ कुटे, जं पंकुवमं तमाहारो ॥१३॥ असणे मुग्गो-अण-सत्तु-मंड-पय-खज-रब्ब-कंदाई। पाणे कंजिय-जव-कयर-ककडोदग-सुराइ जलं ॥ १४ ॥ खाइमि भत्तोस फला-इ साइमे सुंठि जीर अजमाई । महु गुल तंबोलाई, अणहारे मोअ निंबाई ॥१५॥ दो नवकारि छ पोरिसि, सग पुरिमढे इगासणे अट्ठ। सत्तेगठाणि अंबिलि, अट्ठ पण चउत्थि छ पाणे ॥१६॥ चउ चरिमे चउभिग्गहि, पण पावरणे नवट्ठ निवीए। आगारुक्खित्तविवे-गमुत्तु दवविगइ नियमिट्ट॥१७॥ अन्न सह दु नमुकारे, अन्न सह प्पच्छ दिस य साहु सव्व पोरिसि छ सपोरिसि, पुरिमले सत्त समहतरा ॥१८॥

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