Book Title: Tran Bhashya Bhavarth ahit
Author(s): Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
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२६२ . [गुरुवंदन भाष्य ] किइकम्मपि कुणतो, न होइ किइकम्मनिज्जराभागी। पणवीसामन्नयरं, साहू ठाणं विराहतो ॥ १९ ॥ दिद्विपडिलेह एगा, छ उ पप्फोड तिगतिगंतरिया। अक्खोड पमज्जणया, नव नव मुहपत्ति पणवीसा २० पायाहिणेण तिय तिय, वामेयरबाहु-सीस-मुह-हियए। अंसुहाहो पिटे, चउ छप्पय देहपणवीसा ॥२१॥ आवस्सएसु जह जह, कुणइ पयत्तं अहीणमइरित्तं । तिविहकरणोवउत्तो. तह तह से निज्जरा होइ ॥ २२ ॥ दोस अणाढिय थष्टिय, पविद्ध परिपिंडियं च टोलगई। अंकुस कच्छभग्गिय, मच्छुव्वत्तं मणपउ8 ॥ २३ ॥ वेइयबद्ध भयंत, भय गारव मित्त कारणा तिन्नं । पडणीय रुट तज्जिय, सढ हीलिय विपलिउंचिययं॥२४॥ दिमदिळं सिंग, कर तम्मोअण अलिद्धणालिद्धं । ऊणं उत्तरचूलिअ, मूअं ढक्कर चुडलियं च ॥२५॥ बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं जो पउंजइ गुरुणं । सो पावइ निवाणं, अचिरेण विमाणवासं वा ॥ २६ ॥ इह छच्च गुणा विणओ-वयार माणाइभंग गुरुपूआ। तित्थयराण य आणा, सुयधम्माराहणाऽकिरिया।॥२७॥
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