Book Title: Tran Bhashya Bhavarth ahit
Author(s): Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
View full book text
________________
२६३
[गुरुवंदन भाष्य] गुरुगुणजुत्तं तु गुरुं, ठाविज्जा अहव तत्थ अक्खाई। अहवा नाणाइ-तिय, ठविज्ज सक्खं गुरुअभावे ॥२८॥ अक्खे वराडए वा, कटे पुत्थे अ चित्तकम्मे । सम्भावमसम्भावं, गुरुठवणा इत्तरावकहा ॥ २९ ॥ गुरुविरहंमी ठवणा, गुरूवएसोवदंसणत्यं च । जिणविरहंमि जिणबिंब-सेवणामंतणं सहलं ॥३०॥ चउदिसि गुरुग्गहो इह, अहुट्ठ तेरस करे सपरपक्खे । अणणुन्नायस्स सया, न कप्पए तत्थ पविसेउं ॥३॥ पण तिग बारस दुग तिग, चउरोछट्ठाण पय इगुणतीसं गुणतीस सेस आवस्सयाइ सव्वपय अडवन्ना ॥३२॥ इच्छा य अणुन्नवणा, अव्वाबाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणावि अ, वंदणदायस्स छट्ठाणा ॥३३॥ छंदेण--णुजाणामि, तहत्ति तुभंपि वट्टए एवं । अहमवि खामेमि तुमं, वयणाई वंदणरिहस्स ॥ ३४ ॥ पुरओ, पक्खासन्ने गंता चिट्ठण निसीअणा-यमणे आलोअणऽपडिसुणणे पुव्वालवणे य आलोए ॥३५॥ तह उवदंस निमंतण, खळा-ययणे तहा अपडिसुणणे। खद्धत्ति य तत्थगए, कि तुम तज्जाय नौसुमणे ॥३६॥ नो सरसि कहछित्ता, परिसंभित्ता अणुट्ठियाइ कहे । संथारपायघट्टण, चिहुच समासणे आवि ॥ ३७ ॥
१०
૨૧.
No

Page Navigation
1 ... 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276