Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 4
________________ अपनी बात सफलता एक सुन्दर फूल है, जिसे प्रत्येक प्राणी प्राप्त करना चाहता है, पर सफलता मिलती उसी को है, जो सफलता पाने के लिये दृढ़ संकल्पी हो । प्रत्येक बड़ी से बड़ी सफलता की कुजी स्वयं का ढ़ संकल्प, विश्वास, लगन और धैर्य है। इस दुःषम पंचम काल में भौतिकवाद को भयावह रात्रि के सघनतम अन्धकार से प्रायः सारा जगत प्राच्छादित हो रहा है। इसमें सफलता प्राप्त कर लेना सहज बात नहीं है, कोई विरली पात्माएँ ही जिनमें चढ़ आत्म विश्वास, लगन और धैर्य हो वे ही स्वयं मार्ग प्राप्त कर पाती हैं और अन्य को भी कल्याण का मार्ग दे पाती हैं। विशेष बुद्धि को धारण करने वाली और हढ आत्मविश्वास रखने वाली परम पूज्य विदुषी रत्न अभीषण ज्ञामोपयोगी नापिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी (सुशिष्या स्व. आचार्य चारित्र चक्रवर्ती १०८ श्री बााम्तिसागरजी महाराज के द्वितीय पट्टाधीश परम पूज्य कर्मठ तपस्वी चारित्र चूडामणि स्व० आचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज) उन्हीं में से एक हैं । आपके विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । ___ सं० २०३८ मागशीर्ष कृष्णा ११ रविवार दि० २२-११-१९८१ के शुभ मुहूर्त में परम पूज्य माताजी ने परम पूज्य स्व. प्राचार्यकल्प १०८ श्री सन्मति सागरजी महाराज (टोडावाले) से मंगल आशीर्वाद प्राप्तकर इस महान् मन्थराज 'तिलोप-पगएती' की टीका करने का कार्य प्रारम्भ किया था और सं० २०४० अाषाढ़ शुक्ला ३ रविवार दि. १-७-१९८४ को अर्थात् ३॥ वर्ष में इसी भीण्डर नगरी में प्रथम खण्ड आपके हाथों में पहुंचा था। परम पूज्य माताजी प्रायः अस्वस्थ रहती हैं तथापि प्रभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग प्रवृत्ति से कभी विरत नहीं होती। हमेशा परिश्रम करते रहना ही आपकी विशेषता है और इसी का फल है कि जो ३००६ गाथाओं वाला वृहद् काय द्वितीय खण्ड करीब १॥ वर्ष की अल्पावधि में ही दि० २३.४. १९८६ को सलूम्बर नगरी में आपके हाथों में पहुंच सका। और अब तीसरा खण्ड भी इसी भीण्डर नगरी में करीब १।। वर्ष में ही आपके हाथों में पहुंच रहा है । श्री भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के प्रकाशन विभाग से इस ग्रन्थ राज का प्रकाशन हुआ है ! श्री दानवीर सेठ श्री निर्मलकुमारजी सेठी 'सेठी ट्रस्ट' लखनऊ ने अत्यधिक आर्थिक सहयोग दिया है, आपका यह अनुदान अनुकरणीय और सराहनीय है तथा परम्परा से विशिष्ट ज्ञानका कारण है।

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