Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 5
________________ हमारे साधर्मी बंधुवों से निवेदन है कि वे हमारे इस कार्य में हाथ बटावेंगे तो आगामी खंड भी शीघ्र ही प्रकाश में आ सकेगा, प्रत्येक श्रुत भण्डार, मंदिर, सरस्वती भवन, विद्यालय, महाविद्यालय, तीर्थ क्षेत्र आदि में इस ग्रंथराज की एक-एक प्रति विराजमान करावें । गत वर्षों में अमेरिका आदि परदेश के पुस्तक भंडारों में बीसों सेट गये हैं तो भारतीय ग्रंथ-भंडारों के संचालकों का भी ध्यान इस ओर जाना चाहिये, इस ग्रंथ के प्रकाशन में मदद देना या संस्था के कार्य में मदद देना भी एक प्रकार से प्रकाशन में सहायता है । १०१) देने वाले स्थायी सदस्यों की वृद्धि करना भी संस्था के कार्य में एक प्रकार की सहायता है। उन स्थायी सदस्यों को ग्रंथमाला से प्रकाशित ( उपलब्ध ) सर्व साहित्य विना मूल्य भेंट में दिये जाते हैं । आशा है कि हमारे धर्म बंधु यथासाध्य इस कार्य में सहयोग देंगे। इस खंड के प्रकाशन में सहायता इस खंड के प्रकाशन में हमारी एक धर्मभगिनी ने उल्लेखनीय सहायता की है। अतः उनका संक्षिप्त परिचय करा देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। सहारनपुर नि० ला० धवलकीर्ति जी प्रसिद्ध धर्मात्मा थे, उनकी चार पुत्र संतति (१) ला० मेहर चंद, (२) ला० रूपचंद (३) बा० रतनचंद (४) बा० नेमिचंद्र, और एक पुत्री जयवती देवी के नाम से थी । पिता श्री धवलकीर्ति नाम के अनुसार ही धार्मिक वृत्ति, सरल और भद्र प्रकृति के थे, अतः संतान में भी प्रारंभ से ही धार्मिक वृत्ति आई है। श्री ब्र० रतनचंद मुख्तार और बा० नेमीचंदजी वकील से समस्त समाज सुपरिचित है। सतत स्वाध्याय के बल से दोनों सहोदरोंने जैन सिद्धांत का जो ज्ञान आकलन किया है एवं सूक्ष्मतलस्पर्शी विषयों का विवेचन उनकी लेखनी से सदा होता है, जिससे समाज के सर्व श्रेणी के लोग लाभान्वित होते हैं, भाई रतनचदजी ने मुख्तारगिरी १९४७ में छोडकर शांतिमय जोवन को अपनाया, बा० नेमीचंदजी ने १९५३ में वकालत के व्यवसाय को छोड़कर अपनी ४९ की उम्र में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया है, दोनों सहोदरों की यह पावन वृत्ति अनुकरणीय है। इनकी बहिन जयवंती देवी का विवाह सुलतानपुर नि० ला० महाज प्रसाद जी के पुत्र ला० जिनेश्वर प्रसाद जी बी० ए० के साथ हुआ, ला० महाज प्रसाद जी तहसीलदार थे। उनके दो सुपुत्र थे। जो क्रमशः जयप्रसाद और जिनेश्वर प्रसाद के नाम से प्रसिद्ध थे एवं परस्पर प्रेम में बलभद्र और नारायण के समान रहते थे। ला० महाज प्रसाद जी के पिता ला• अजुध्या प्रसाद जी डिप्टी कलेक्टर थे। उनका एक पुत्र ला० जनेश्वरदास भी ऑनरेरी मेजिस्ट्रेट व ऑ० असिस्टेंट कलेक्टर थे। ला० जनेश्वरदास की एक बहिन सहारनपुर नि० सुप्रसिद्ध तीर्थ भक्त स्व० ला० जंब प्रसाद जी से विवाही थी, उनके सुपुत्र ला• प्रद्युम्नकुमार जी रईस आज विद्यमान हैं, इस प्रकार श्रीमती जयवंती देवी ला० प्रद्युम्न कुमार जी की सगी मामी थी। ला० जिनेश्वरप्रसाद और जयप्रसाद दोनों भाइयों को कोई सन्तान नहीं थी। ला० जयप्रसाद का स्वर्गवास सन् १९६० में हुआ, अत्यधिक प्रेम के कारण ला० जिनेश्वर दास जी उनके वियोग को सहन नहीं कर सके। इसलिए उसी शोक से वे भी एक महीने के बाद ही स्वर्गस्थ हुए, अब उनकी स्मृति में उनकी दोनों विधवा पत्नियों ने एक लाख रुपये नगद, और बहुत सी स्थावर संपत्ति देकर सुलतानपुर में इंटर कालेज स्थापित कराया है। सम्मेदशिखर जी, हस्तिनापुर आदि क्षेत्रों में भी कमरा आदि निर्माण कराये एवं और भी पर्याप्त दान किया है। श्रीमती जयवंती देवी ने श्लोकवार्तिकालंकार के इस खण्ड के प्रकाशन में ४०००) की धन राशि सहायता में दी है, हमारी प्रबल इच्छा थी कि उनके सामने ही यह प्रकाशित हो जाय परंतु

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