Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 12
________________ (१०) "भठियारेके टट्ट कुंभारके गधे" (पृष्ठ ३१२) (११) " ऐसे गुरु और चेलोंके मुखपर धूल और राख पडे " (पृ. ३२६) (१२) " भागवतके बनानेवाले लाल बुजकह क्या कहना है तुझको ऐसी ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शरम न आई निपट अंधा ही वन गया ! भला इन झूठ बातोंको वे अंधे पोप और बाहिर भीतरकी फूटी आखोंवाले उनके चले भी सुनते और मानते हैं! इन भागवतादिके वनाने हारे जन्मते ही क्यों नहीं गर्भ ही में नष्ट हो गये वा जन्मते समय मर क्यों न गये.?" [पृष्ट ३३०] (१३) " तुम भाट और खुशामंदी चारणोंसे भी बढकर गप्पी हो" [पृ. ३३१] (१४)." भौड धूर्त निशाचर वत् महीधरादि टीका कार हुए हैं " (पृष्ठ ४०२) (१५) " सबसे वैर विरोध निंदा ईर्पा आदि दुष्ट कर्म रूप सागरमें डुवानवाला जैन मार्ग है जैसे जैनी लोग सबके निंदक हैं वैसा कोई भी दूसरे मतवाला महानिंदक और अधर्मी न होगा!" [ पृष्ठ ४३१] (१६) " पाखंडोंका मूल ही जैन मत है " [पृष्ठ ४४० ] इत्यादि-( सत्यार्थ प्रकाश सन् १८८४) __प्यारे पाठको ! स्वामीजी महाराजकी इस मनोहर वाक्य रचनाके विषयमें यदि हम कहें तो क्या कहें : “विद्या हि विनयावास्यै, सा चेदविनया वहा! किं कुर्मः? कुत्र वा यामः?, सलिलादग्निरुत्थितः ॥१॥"

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