Book Title: Suyagadang Suttam Part 02
Author(s): 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग चूर्णिः ॥४११॥ मध्ययनम् |कते।' (आवश्यकनियुक्तिः ८०१) यतश्चैवं तेण जं भणितं णत्थि णं से केयि परियाए जेण समणोवासगस्स द्वितीय| एगपाणाए वि दण्डे णिक्खित्ते । णणु पोसधकरणेण चेव दंडणिक्खेवो एवं सव्वपोसधे देसपोसधेवि देसदंडणिक्खेवो, श्रुतस्कन्धे उक्तञ्च-'जत्तो जत्तो णियत्ति०।'( ) एवं ताव साभिग्गहा वुच्चंति ॥८५७।। सप्तम___(मू०) भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवति, णो । | खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठ पुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसिया | भत्तपाणपडियाइक्खिया कालं अणवकंखमाणा विहरिस्सामो, सव्वं पाणातिवायं पच्चाइक्खिस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खिस्सामो तिविहं तिविहेणं,मा खलु मम अट्ठाए किंचि वि जाव आसंदिपेढियाओ | पच्चोरुहित्ता ते तहा कालगया किं वत्तव्वं सिया? समणा कालगता इति वत्तव्वं सिया । ते पाणा वि वुच्चंति जाव अयं पि भे देसे नो नेयाउए भवति । (सूत्र ८५८) ॥४११॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480