Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 230
________________ १९७ लोगस्स सूत्र १९७ भी ग्रहण हो जाता इसलिए 'जिन' विशेषण के साथ लोक को उद्योत करनेवाले तथा धर्मतीर्थ के स्थापक वगैरह विशेषण भी आवश्यक हैं । इन चारों विशेषण पद के विशेष्य कि तौर ‘अरिहंते पद का प्रयोग किया गया है । यदि सिर्फ विशेष्य 'अरिहंते' पद का प्रयोग किया होता तो नाम - अरिहंत, स्थापना-अरिहंत, द्रव्य - अरिहंत, भाव - अरिहंत आदि कोई भी प्रकार के अरिहंत का ग्रहण हो जाता । जब कि, उपर्युक्त विशेषणों से युक्त ‘अरिहंते' पद से मात्र भाव - अरिहंत का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं । इसलिए प्रत्येक विशेषण और विशेष्य ऐसा ‘अरिहंत' पद आवश्यक है। चार विशेषणों द्वारा चार अतिशय : इस गाथा में परमात्मा के चार अतिशय बताए गए हैं । 'लोगस्स उज्जोअगरे' विशेषण द्वारा भगवान केवलज्ञान द्वारा लोक को प्रकाशित करनेवाले हैं, इस प्रकार ज्ञानातिशय बताया है । 'धम्मतित्थयरे' कहने द्वारा परमात्मा वचन द्वारा भव्यात्माओं को संसार समुद्र से पार उतरने के लिए अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म का यथार्थ उपदेश देते हैं, इस प्रकार वचनातिशय बताया है । 'जिणे' पद द्वारा भगवान राग-द्वेष और मोहरूप महाअपाय को जीतनेवाले हैं, यह बताकर परमात्मा का अपायापगमातिशय सूचित किया है और 'अरिहंते' शब्द द्वारा परमात्मा का पूजातिशय बताया है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है, “दुनिया में श्रेष्ठ देवतत्त्व मुझे मिला है । 'हे नाथ ! आप के गुणों को जानकर, आपकी स्तवना करने के लिए मन उल्लसित हुआ है । उसमें मैं सफल बनूँ, ऐसी प्रार्थना है ।” दूसरी - तीसरी और चौथी गाथा द्वारा चौबीस तीर्थंकरों का नाम सहित कीर्तन किया गया है ।

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