Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 288
________________ सामाइयवय जुत्तो सूत्र . २५५ ८. अशुद्व : सामायिक में प्रयोग होनेवाले सूत्र या सामाधिक करते हुए स्वाध्याय के सूत्र अशुद्ध बोलना, सूत्र के अर्थ का निरूपण भी समझे बिना जैसे तैसे करना ‘अशुद्ध' नामक दोष है ।। ___९. निरपेक्ष : जैन दर्शन स्याद्वादमय दर्शन है । उसमें किसी एक नय को (एक दृष्टि को) स्थान नहीं, जब किसी भी नय (दृष्टिकोण) से पदार्थ को समझाते हों, तब अन्य नय की अपेक्षा भी होनी चाहिए । उसके बदले 'यह वस्तु ऐसी ही है' इस तरह मात्र एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ को समझाने में निरपेक्ष दोष की संभावना है । १०. मूलगुण : सामायिक की क्रिया में आनेवाले सूत्रों को अस्पष्ट रीति से बोलना अथवा संकलन के बिना उपदेश देना ‘मूलगुण' दोष है । इस दोष से बचने के लिए साधक को शुद्ध भाव की वृद्धि हो, उस तरह सूत्रों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए तथा श्रोता को स्पष्ट बोध हो, वैसे संकलनायुक्त स्पष्ट शब्दों में उपदेश देना चाहिए । काया के बारह दोष : १. अयोग्य आसन : सामायिक के लिए जो आसन योग्य हो, उस आसन का अभाव ‘अयोग्य आसन' नामक दोष है । सामायिक व्रत को स्वीकार कर साधक को समताभाव की वृद्धि हो, ऐसे पद्मासन वगैरह किसी योग्य आसन एवं मुद्रा में बैठना चाहिए । मनचाहे ढंग से पैर लंबे-छोटे कर अयोग्य आसन में नहीं बैठना चाहिए । अयोग्य आसन में बैठना तो सामायिक धर्म के प्रति अविनयभाव का सूचक है । सामायिक धर्म के प्रति अविनय कर्मबंध का कारण है । इसीलिए समता इच्छुक आत्मा को सामायिक में जैसे तैसे बेठने रूप अयोग्य आसन नाम के दोष को टालना चाहिए । २. अस्थिर आसन : बार बार आसनों को, मुद्राओं को बदलना, बिना कारण बार बार स्थानांतरण करना, हाथ-पैर या सिर हिलाना ‘अस्थिर आसन' नामक दोष है । समभाव के इच्छुक साधक को सामायिक लेकर

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