Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 293
________________ २६० सूत्र संवेदना १. सामायिक का अधिकारी: जिसको सर्वविरति लेने की भावना हो पर जो ले न सकता हो, फिर भी जो अपना चारित्र मोहनीय कर्म तोड़ने के लिए जितना भी समय हो सके उतना समय संसार मे गँवाने के बजाय साधना में लगा दूँ' ऐसी भावना रखता हो। भूतकाल में जाने-अनजाने में हुए पापों को गुरु समक्ष स्वीकार करके जो शुद्ध हुए हैं, सामायिक व्रत के प्रति जिन्हें प्रीति है, इसके उपरांत प्रतिज्ञा का दृढतापूर्वक पालन करने का जिनमें सामर्थ्य है और जो समितिगुप्ति के अभ्यासी हैं, वे मुख्यतया सामायिक के अधिकारी हैं । २. सामायिक का स्वरूप : ऐसी अधिकारयुक्त आत्मा जिस सामायिक का स्वीकार करती है, उस सामायिक का शास्त्र में, भूमिका के भेद से अनेक प्रकार से वर्णन है । ऐसा होते हुए भी सामान्य तौर पर सभी प्रकार के सामायिक में अल्प या अधिक अंश में प्राप्त होनेवाला लक्षण इस प्रकार है - समभावो सामाइयं तणकंचणसत्तुमित्तविसउ त्ति । णिरभिसंगं चित्तं उचियपवित्तिप्पहाणं च ।। - पंचाशक सामायिक अर्थात् सर्वत्र समान वृत्ति, निरभिष्वंगचित्त एवं औचित्यपूर्ण व्यवहार। . सर्वत्र समवृत्ति अर्थात् सोने का ढेर हो या रेत का ढेर हो, ये दोनों चीज़े पुद्गलमय-जड हैं, जीव को वे सुख या दुःख नहीं दे सकतीं, इन चीजों के प्रति जो सुखदायक या दुःखदायक बुद्धि उत्पन्न होती है, वह तो कल्पना मात्र है । ऐसा सोचकर उसमें अच्छे-बुरे की वृत्ति नहीं रखनी । शत्रु हो या मित्र, आत्मा से तो भिन्न ही है । मुझे अपने कर्म के अलावा; शत्रु या मित्र - कोई भी सुखी या दुःख़ी नहीं कर सकता, ऐसा मानकर शत्रु या मित्र को समान

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