Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 309
________________ २७६ सूत्र संवेदना जो महाव्रत को धारण करते हैं, धीरता से युक्त हैं, अल्प एवं कल्पनीय भिक्षा मात्र से शारीर का पोषण करते हैं, सामायिक चारित्र में स्थित हैं एवं जिनाज्ञा के अनुसार धर्मोपदेश देते हैं, उनको जैनशासन में गुरु कहते हैं । 'दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करे-बचाए', उसे धर्म कहते हैं। सर्वज्ञ भगवंतो के बताये संयमादि दशविध धर्म मुक्ति प्रदान करते हैं, इसे सुधर्म कहते हैं। ऐसे सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म का आदर ही आत्मा में राग का त्याग करने का सामर्थ्य प्रकट करता है । इसलिए मुमुक्षु सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म के प्रति आदरवाला होता है याने कि इस बोल द्वारा वह अपने जीवन में उनकी आज्ञा का यथाशक्ति पालन करने का संकल्प करता है । सुदेवादि की आराधना तब संभव बनती है, जब कुदेवादि का त्याग हो। इसलिए अब कहते है - ११-१२-१३. कुदेव-कुगुरु-कुधर्म परिहरु : जो देव स्त्री, शस्त्र, अक्षमाला आदि रागादि चिह्नों से कलंकित हैं तथा निग्रह एवं अनुग्रह करने में तत्पर है, वे कुदेव है । सर्व पदार्थों की इच्छा रखनेवाले, सर्वप्रकार के भोजन करनेवाले, परिग्रह रखनेवाले, अब्रह्मचारी एवं उन्मार्ग का उपदेश देनेवाले कुगुरु हैं । जिस धर्म में रागादि से मुक्त होने की एवं संपूर्ण अहिंसा की बातें न हो, वह सुधर्म नहीं है। कुदेवादि के सान्निध्य से आत्मा मलिन बनती है । इसलिए साधक आत्मा इन बोलों द्वारा कुदेवादि को त्याग करने का संकल्प करता है । सु और कु की परीक्षा भी कौन कर सकता है ? जो सम्यग्ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए यत्न करते हो; इसलिए अब कहते हैं कि, 1. योगशास्त्र प्रकाश-२ गाथा ४-८-११ 2. योगशास्त्र प्रकाश-२ श्लोक-६, ९

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