Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 303
________________ २७० २७० सूत्र संवेदना पर जिन्होंने सामायिक लेकर समभाव को प्राप्त करने का यत्न न किया हो, मात्र व्यवहार से ही सामायिक व्रत को स्वीकार किया हो, उन आत्माओं को इस सामायिक की उत्तमता या आत्मिक आनंद का अनुभव नहीं हो सकता अतः वे सामायिक का समय पूर्ण होते ही सामायिक पारने के लिए तत्पर बन जाती हैं। सामायिक पारने की विधि इस प्रकार है - १. एक खमासमण देकर खड़े होकर ईरियावहियं, तस्स उत्तरी०, अनत्थ०, कहकर (चंदेसु निम्मलयरा तक) एक लोगस्स का (न आता हो तो चार नवकार का) काउस्सग्ग करना । काउस्सग्ग पारकर (नमो अरिहंताणं कहकर) प्रकट लोगस्स सूत्र बोलना । सामायिक पारने के लिए सर्वप्रथम एक खमासमण देकर, गुरु को वंदन कर, सामायिक काल में प्रमाद के कारण जिस तरीके से सामायिक में प्रयत्न करना चाहिए था ऐसा न कर सके हों, अथवा अनाभोग से या अचानक सामायिक के भाव से कोई विरुद्ध प्रवृत्ति हुई हो, उसके निवारण के लिए ईरियावहिया एवं तस्स उत्तरी सूत्र कहते हैं । ये सूत्र इस तरीके से बोलने चाहिए कि, जीव के प्रति मैत्री का अभाव या अन्य किसी दोष के कारण हुए पापों का स्मरण कर, उनका 'मिच्छा मि दुक्कडं' दे सकें एवं भविष्य में ऐसे पाप पुनः न हों, उसके लिए अधिक दृढ़ प्रयत्न चालू रहे । इसके बाद सामायिक के समय में लगे पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए अन्नत्थ बोलकर, एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना होता है । इस लोगस्स का स्मरण सामायिक में लगे पापनाश के प्रणिधानपूर्वक करना है । ऐसे प्रणिधानपूर्वक एवं चित्त की एकाग्रता से २४ जिनों की स्तवना करने के कारण कायोत्सर से चित्त खूब निर्मल बनता है । यह निर्मल चित्त पुनः पाप नहीं करने देता एवं कभी पाप हो जाए तो भी पूर्व के जैसे मलिन भाव तो नहीं ही आते । इसके बाद चित्त की निर्मलता से प्राप्त हुए हर्ष को प्रगट करने के लिए प्रगट लोगस्स बोला जाता है ।

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