Book Title: Sutra Samvedana Part 01
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 276
________________ २४३ सामाइयवय जुत्तो सूत्र तृप्ति : व्रत-नियम में मन का जुड़ना अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि व्रत-नियम का स्वीकार अशुभ कर्मबंध को रोकने एवं बंधे हुए कर्मों का नाश करने के लिए होता है । यह उद्देश्य तभी सिद्ध होता है, जब मन सामायिक के भावों मे जुडा हो । मन अगर रागादि के अधीन बनकर पाप-प्रवृत्तियों के विचारों से घिरा हो तो सामायिक करनेवाला साधक भी कर्मबंध को रोक नहीं सकता । वाणी एवं काया नियंत्रण में होने पर भी यदि मून, पाप के विचारों में फँस गया हो तो प्रसन्नचंद्र राजर्षि की तरह नरक गति के योग्य भूमिका तैयार हो जाती है या फिर तंदुलिया मत्स्य की तरह नरक गति के योग्य कर्मबंध भी हो जाता है । इसीलिए यहाँ मन के नियंत्रण पर ज्यादा भार दिया गया है । मन ही शुभ - अशुभ भावों को उत्पन्न करता है । मन का क्षेत्र अति विशाल एवं अपरिमित है । इसलिए जब तक उसे किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा से बद्ध न किया जाय, तब तक वह निरंतर विविध भावों में भटकता ही रहता है । मन को अच्छी तरह से नियम से युक्त करें, तो ही सानुबंध निर्जरा होती है । मन को नियम में यथार्थ रूप से जोड़ने से उसके साथ वचन एवं काया तो नियम में आ ही जाते है । जिज्ञासा : इस गाथा की पहली पंक्ति में सामायिक को व्रत और नियम दोनों स्वरूप में बताया गया है; तो सामायिक व्रत है या नियम है ? तृप्ति : सामायिक व्रत भी है एवं नियम भी है क्योंकि मूलगुण व्रत कहलाता है एवं उत्तरगुण नियम कहलाता है । हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह - इन पाँचों का जिसमें सम्पूर्ण त्याग किया जाता है, वह मूल व्रत कहलाता है एवं इन व्रतों के पोषण के लिए या अभ्यास के लिए जो भिन्न भिन्न तरीके से प्रतिज्ञा ली जाती है, उसे नियम या उत्तरगुण कहते हैं । सामायिक करते समय हिंसादि का सम्पूर्ण त्याग होने से वह व्रत कहलाता है एवं सर्वथा पाप की निवृत्तिरूप सर्वविरति के पालन का अभ्यास इस सामायिक द्वारा किए जाने से यह नियम भी कहलाता है तथा उससे संयम

Loading...

Page Navigation
1 ... 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320