Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M Sangh View full book textPage 9
________________ (7) प्रकृतिनो बन्ध, ते अनेरी प्रकृति पापनी छे” तथा पृष्ठ 83 में लिखते हैं कि-"जीवोना कुपात्रदान ने चौड़े भारी कुकर्म कह्यो, छः कायारा शस्त्र कुपात्र छे, तेने पोष्यां धर्म पुण्य किम निपजे" _अर्थात्। जीतमलजी भारपूर्वक कहते हैं कि “ए मनुष्यो ! देखो कुपात्र दान को स्पष्ट और खुले आम भारी पाप कहा गया है। कुपात्र व्यक्ति छ: काया के शस्त्र हैं। इनका पोषण करने से धर्म और पुण्य कैसे हो सकता है !" इसी प्रकार श्रावक धर्म विचार नामक पुस्तक में भीखणजी लिखते हैं कि - "कुपात्र दान मोह कर्म उदय" (पृष्ठ 131-132) भीखणजी के मत में तेरह पन्थ साधु से भिन्न सभी कुपात्र हैं। उनको दान देना इनके मत में मोह कर्म का उदय है। इस सिद्धांत के अनुसार तेरह पन्थी साधु व्याख्यान में भी अपने श्रावकों को तेरह पंथी साधु से अन्य व्यक्ति को दान देने का त्याग कराते हैं। जैसे कहा है कि - अव्रत में दान दे, तेहनों टालन रो करे उपायजी। जाने कर्म बंधे छे म्हायरे, मोने भोगवतां दुःखदायजी। व्रती-साधु के सिवाय किसी को भी दान देने की वृत्ति को टालने का उपाय करना चाहिए। 'अव्रती को दान देने से मुझे कर्म बन्ध होगा' ऐसा समझना चाहिए। वे कर्म भोगने में बड़े दुःखदायी हैं। श्रावक धर्म विचार नामक पुस्तक में भीखणजीPage Navigation
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