Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M SanghPage 10
________________ (8) लिखते हैं कि - व्रत में दान देवा तणो, कोई त्याग करे मन शुद्ध जी । तिणरो पाप निरन्तर टालियो, तिणरी वीर वखाणी बुद्धि जी ॥ अर्थात् तेरह पन्थ के साधु के सिवाय संसार के समस्त प्राणी अव्रती हैं उन अव्रतियों को दान देने का यदि कोई शुद्ध मन से त्याग करता है तो समझना चाहिये कि उसने सदा के लिये पाप का त्याग कर दिया है और वीर प्रभु ऐसे पुरुष के बुद्धि की प्रशंसा करते हैं। भ्रम - विध्वंसन पृष्ठ 82 में साधु से भिन्न व्यक्ति को दान देना एकान्त पाप बताते हुए संशोधक महाशय लिखते हैं कि - सपन "कुपात्र दान, मांसादि सेवन, व्यसन कुशीलादि ये तीनों ही एक मार्ग के पथिक हैं। जैसे कि चोर जार और - ठग ये तीनों समान व्यवसायी हैं । तैसे ही जयाचार्य के सिद्धान्तानुसार कुपात्र दान भी माँसादि सेवन व्यसन कुशीलादिक की ही श्रेणी में गिनने योग्य हैं।" पा f तेरह पन्थियों के इन ऊपर लिखे हुए दाखलों से पाठकों को यह भली भाँति ज्ञात हो चुका है कि तेरह-पन्थी लोग एक, मात्र अपने साधुओं को ही सुपात्र मानकर शेष समस्त प्राणियों AF 120 को कुपात्र मानते हैं और उनको दान देने में, उनका सम्मान करने में, विनयादि करने में एकान्त पाप बतलाते हैं। इसी प्रसंग में ब्राह्मणों को दान देने और उनको भोजन कराने से जीतमलजी' नरक की प्राप्ति बताते हैं । भ्रमविध्वंसन पृष्ठ 68 और 70 मेंPage Navigation
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