Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M SanghPage 21
________________ (19) यहां शास्त्रकार ने श्रावकों के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया है। वे विशेषण ऐसे प्रशंसा के द्योतक हैं, जो अतिशय गुणयुक्त व्यक्ति के लिये ही घटित हो सकते हैं। कुपात्र, पापी और नीच व्यक्तियों के लिये इनका प्रयोग करना: तो मूर्ख भी उचित नहीं मान सकता। फिर सर्वज्ञ प्रभु इन विशेषणों का उपयोग कुपात्रों के लिये कैसे कर सकते हैं? यह तेरहपन्थियों को सोचना चाहिये। इस पाठ में शास्त्रकार जिसको श्रीमुख से सुशील सुव्रत और साधु कहते हैं । उस को तेरहपंथी कुपात्र कहते हैं। यह तीर्थंकरों की उक्ति पर हरताल लगाना और अपने को तीर्थंकर से बढ़कर बताना है। इसी को तो दुराग्रह कहते हैं ! ऐसा उत्सूत्रवादी धर्म की व्यवस्था करे तो सारा जगत् शीघ्र ही पाप सागर में डूब जाय। इसमें कुछ भी संशय नहीं हो सकता । जिस प्रकार उववाई सूत्र में शास्त्रकार ने उत्तमोत्तम विशेषणों के द्वारा श्रावक की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । उसी तरह सूत्रकृतांग में भी प्रशंसा करते हुए श्रावक के अंगीकृत मार्ग को एकान्त धर्म पक्ष में माना है । यह पाठ भी पाठकों के बोधार्थ दे दिया जाता है " तत्थ णं जा सा सव्वओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभणो आरंभठाणे एस ठाणे आरिए केवले पडिपुन्ने नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निव्वाणमग्गे निज्जाण मग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंत सम्मे साहू " इसका अर्थ यह है कि पहले बताये हुए स्थानों में जो विस्ताविरत नामक स्थान है। यह स्थान "आरंभनो आरंभ" -Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36