Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M SanghPage 19
________________ (17) ....... अर्थात् प्रमादी साधु शुभ योग की अपेक्षा से आत्मारम्भी परारम्भी और तदुभयारम्भी नहीं है किन्तु अनारम्भी है। परन्तु वह अशुभ योग की अपेक्षा से आत्मारम्भी, परारम्भी और तदुभयारम्भी है। अनारम्भी नहीं है। इस माठ से स्पष्टो सिद्ध होता है कि-प्रमादी साधु भी आरम्भी होने के कारण छ: काया का शस्त्र है। फिर प्रमादी साधु कुपात्र क्यों नहीं? यदि छ: काया का शस्त्र होकर भी प्रसादी साधु कुपात्र नहीं माना जाता तो फ़िर श्रावक क्योंकर कुपात्र माना जा सकता है। अतः छः काया का शस्त्र कुपात्र है।" यह जीतमलजी का प्रतिपादन किया हुआ कुपात्र का लक्षण भी आगम विरुद्ध है। " .: । कुपात्र की परिभाषा. भीखणजी और जीतमलजी एवं चर्चावादी कुन्दनमलजी ने जो बनाई है। उसके अनुसार, जैसे श्रावक कुपात्र ठहरता है वैसे साधु भी कुपात्र ही ठहरता है। तथापि साधु को ये सुपात्र और श्रावक को कुपात्र बताते हैं। यह इनकी स्वार्थपरता के सिवाय और कुछ नहीं है। इन लोगों के ऐसा करने का उद्देश्य यही है कि समस्त, लोगों को कुपात्र मानकर जनता एकमात्र हम लोगों को ही सुपात्र माने और हमारी ही सेवा, पूजा, भक्ति, विनय और दान सम्मान आदि करें। .: जीतमलजी, भीखणजी और चर्चावादी!महाशय ने श्रावक को कुपात्र ठहराने का जो प्रयत्न किया है। वह न्याय एवं शास्त्र विरुद्ध है, यह हमने ऊपर बता दिया है। स्वतंत्र रूप से यदि इसके विषय में विचार किया जाय तो भी श्रावक कुपात्रा नहींPage Navigation
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