Book Title: Supatra Kupatra Charcha
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Aadinath Jain S M Sangh

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Page 27
________________ N (25) सन्देह है। आज इसी मान्यता का यह फल हो रहा है कि औरतें अपने बीमार पति पुत्र आदि कुटुम्बी जनों को कुपात्र मान कर उनकी सेवा शुश्रूषा में पाप होना समझती हुई जब कभी इच्छा होती है साधुओं का दर्शन करने के लिये चली जाती हैं। एक मात्र उनको ही सुपात्रं समझकर उनका मुख देखती रहती हैं। मानों इस कार्य से ही उनके जीवन की सफलता हैं और यही धर्म का एकमात्र साधन है, शेष सब पाप का कार्य है। केवल स्त्रियों की ही यह दशा नहीं हैं। इस समाज की शिक्षा से युक्त हृदयं वाले बालक युक्क और वृद्धं भी ऐसा ही करते हुए देखें जाते हैं। इन सब दुर्व्यवस्थाओं को फैलाने वाली, साधु से अतिरिक्त सभी को कुपात्र बताने वाली यह जहरीली मान्यता ही हैं। अथवा इन साधु नाम धारियों की स्वार्थ पूर्ति का यह प्रपंच कहा जा सकता है। इसमें शास्त्रीय मान्यता की गन्ध भी नहीं है, यह ऊपर सविस्तार बता दिया गया है। IFS 41 18. T जक व्यवस्थ | व नाश का दिग्दर्शन तो संक्षेप से करा दिया गया है। इस मान्यता के कारण अनुकम्पा तथा दया की क्या दशा हो रही हैं। यह भी संक्षेप में थोड़ा बता दिया जाता है। साधु के सिवायो “समस्त लोग कुपात्र है" इस मान्यता से भावित व्यक्ति गरीब, अनाथा रोगी, दीन, हीन व्यक्तिओं की रक्षा के लिये उनको अन्न वस्त्र औषधं आश्रय आदि देने में एकान्त पाप मानकर उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं देते हैं। सहायता देना तो दूर रही काही

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