Book Title: Supatra Kupatra Charcha
Author(s): Ambikadutta Oza
Publisher: Aadinath Jain S M Sangh

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Page 25
________________ (23) जकड़ जाता है। वह कर्तव्य, अकर्तव्य, धर्म अधर्म को न सोचकर जिस किसी तरह अपने स्वार्थ और मत पक्ष का स्थापन करता है । वह शास्त्रकारों की बातों में और न्याय अन्याय की ओर दृष्टि नहीं देता। यही कारण है कि तेरहपंथी श्रावक को कुपात्र कहकर शास्त्र विरुद्ध प्ररूपण करते हैं । शास्त्रकारों ने श्रावकों को धार्मिक और गुणरत्न का पात्र माना है - कुपात्र नहीं कहा है। इसलिये शास्त्रीय सिद्धान्त से तो श्रावक कुपात्र है ही नहीं। लेश्या, ध्यान या कषाय आदि के कारण भी श्रावक कुपात्र नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जो छः लेश्याएँ श्रावकों में होती हैं। तेरहपन्थी वे ही छः लेश्याएँ साधुओं में भी मानते हैं। यदि छः लेश्याओं के कारण तेरहपन्थी श्रावक को कुपात्र मानते हो तो फिर छः लेश्याएं तो साधुओं में भी वे मानते हैं। अतः तेरहपंथी साधु भी इस प्रकार कुपात्र ही ठहरेंगे । यदि छः लेश्याओं के होने पर भी साधु कुपात्र नहीं होते तो फिर श्रावक कैसे कुपात्र हो सकते हैं । यही बात ध्यान और कषाय के सम्बन्ध में भी है। क्योंकि-श्रावक और साधु दोनों में ही तेरहपन्थी आर्त- रौद्रध्यान और दोनों में ही कषायों का सद्भाव मानते हैं। ऐसी दशा में पूर्वोक्त ध्यान या कषाय के कारण कुपात्र कहें तो फिर साधु श्रावक दोनों ही समान रूप से कुपात्र ठहरेंगे। तो फिर साधु सुपात्र हैं और श्रावक कुपात्र हैं। यह भेद कैसे किया जा सकता है? अतः ध्यान या कषाय के कारण भी श्रावक कुपात्र नहीं कहा जा सकता है।

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