Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M SanghPage 23
________________ (21) गुण रत्नों के पात्र हैं। सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र जैन दर्शन में गुण रत्न माने जाते हैं। इनको जो धारण करने वाले व्यक्ति हैं उनकी प्रशंसा करते हुए शास्त्रकार ने उन्हें गुण रत्नों का पात्र बताया है। उस समूह में साधु साध्वी श्रावक और श्राविका चारों ही माने जाते हैं। इसलिए श्रावक शास्त्रानुसार गुण रत्नों का पात्र सिद्ध होता है। उसको कुपात्र बताना शास्त्र विरुद्ध भाषण करना है। बुद्धिमान पाठक स्वयं यह बात समझ सकते हैं। भगवती शतक 20 उद्देशा आठ में शास्त्रकार तीर्थ का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि-"तित्थं पुण चाउवण्णाइण्णे समणसंघे तं जहा-समण समणीओ सावया सावियाओ।" अर्थात् संसार से पार करने का जो साधन है उसे तीर्थ कहते हैं। वह तीर्थ चार वर्णों से युक्त श्रमण संघ है। जैसे कि-साधु साध्वी श्रावक और श्राविका। यद्यपि संसार सागर को पार करने का साक्षात् साधन तो ज्ञान दर्शन और चारित्र है। तथापि इनका आधार होने के कारण उक्त चार वर्णों का समूह भी तीर्थ कहा जाता है। यहां साक्षात् शास्त्रकार संसार सागर से पार होने के साधनभूत तीर्थ में श्रावक और श्राविका की उसी प्रकार गणना करते हैं जैसे श्रमण और श्रमणी की। फिर श्रावक और श्राविका कुपात्र कैसे माने जा सकते हैं। कुपात्रों का समूह संसार सागर को पार करने का साधन नहीं हो सकता। श्रावक को शास्त्रकार ने इस पाठ में तीर्थ का खास अंगभूत माना है तथा अन्यान्य स्थलों में श्रावकों की बहुत प्रशंसा की है। इस कारण श्रावकPage Navigation
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