Book Title: Supatra Kupatra Charcha Author(s): Ambikadutta Oza Publisher: Aadinath Jain S M SanghPage 15
________________ (13) भीखणजी के सिद्धान्तानुसार तो ये सभी नीति के पालन करने वाले कुपात्र ही हैं। क्योंकि वे साधु से भिन्न समस्त जगत को कुपात्र मानते हैं । जैसा कि जीतमलजी ने लिखा है कि- " साधु थी अनेरो तो कुपात्र छे ।” अखण्ड कानून बनाने वाले चर्चावादी महाशय आदि उपरोक्त भीखणजी के सिद्धान्त से विपरीत राजनीति या गृहस्थ नीति में या पूर्वोक्त 11 प्रश्नों में धर्म या पुण्य मानते हैं तथा नीति का पूर्ण पालन करने वाले राजा को सुपात्र या धार्मिक मानते हैं तो उन्हें इसका खुलासा जवाब देना चाहिये। गोलमोल उत्तर देकर जगत् को धोखा देना कौनसी नीति है ? सो चर्चावादी महाशय बतावें । यहां विचारणीय विषय यह है कि ऊपर लिखी हुई इनकी सुपात्र कुपात्र विषय की व्याख्या जैनागम से सम्मत है या प्रतिकूल है ? जैन आगम में कहीं भी ऐसा पाठ नहीं है जो एकमात्र साधु को सुपात्र और साधु से इतर समस्त प्राणी को कुपात्र बताता हो । चर्चावादी महाशय ने जो सुपात्र और कुपात्र के लक्षण अपनी इच्छा से बनाये हैं उनके अनुसार वे स्वयं तथा उनके सम्प्रदाय के सभी साधु भी कुपात्र ठहरते हैं । चर्चावादी तेरहपन्थी महाशय का कहना है कि जिसमें हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह रूप पाँच या एक आस्रव हो वह कुपात्र है। तो प्रमत्त गुणस्थान वाले साधु में भी 18 ही आस्रव पाये जाते हैं, फिर वे कुपात्र क्यों नहीं? इनके आचार्य भीखणजी ने साधुओं में भी 18 आस्रव माने हैं जैसा कि 52 बोल के थोकड़े में आस्रवों की 20 भेदों की विगत प्रकरण में वे लिखते हैं किPage Navigation
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