Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 7
________________ प्रकाशकीय अनादि काल से प्रवाहित निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति की यह पवित्र धारा अनेक उतार-चढ़ावों के उपरान्त भी अनवरत गतिशील रही है। प्रभु आदिनाथ-ऋषभदेव से लेकर चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर ने इसका यथा समय पुनरुद्धार किया और अपनी अमूल्य पावनी वीतराग वाग्धारा के द्वारा हजारों लाखों नहीं करोड़ों मानवों को आत्म शांति-परम मुक्ति का पुनीत पाथेय प्रदान किया। ___ प्रभु महावीर के पश्चात् भी काल क्रम से वही धारा आचार्य परम्परा के द्वारा प्रवाहित हो रही है जो आज भी प्रवाहमान है। किन्तु यह भी नितांत सत्य है कि अहिंसा प्रधान एवं निवृत्ति परक इस जैन संस्कृति की धारा को समय-समय पर अनेक थपेड़े भी सहन करने पड़े हैं, अनेकों बार इसे नष्ट होने से बचाने में आचार्यों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जब-जब भी इसकी दार्शनिक अवधारणा एवं आचार परम्परा में शिथिलता ने प्रवेश किया तो पुनः आचार्यों ने क्रांति की मशाल जलाकर इसे तेजस्विता और आलोक प्रदान किया है। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि जब-जब भी क्रांति घटित हुई एक नूतन संघ परम्परा का सूत्रपात होता गया। इस प्रकार यह धारा अनेकों अवान्तर उपधाराओं में विभक्त होती गई और आज स्थिति यहाँ तक पहुंच गई है कि इसकी मूल धारा कौनसी है इसका भी पता लगाना अत्यंत कठिन हो गया है। तथापि यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति किंवा जैन संस्कृति आज भी अपनी मौलिकता में विद्यमान है और अनवरत प्रवाहमान है। श्रमण संस्कृति की इस पवित्र धारा को अपने मूल रूप में कायम रखने वाले महापुरुषों में आचार क्रांति की दृष्टि से महान् क्रांतिवीर श्री लोकाशाह एवं महान् क्रियोद्धारक आचार्य प्रवर श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जिस समय श्रमण परम्परा में अत्यधिक शिथिलाचार का प्रवेश होने लगा, निर्ग्रन्थ श्रमण अपनी अप्रतिबद्ध विहारचर्या की मर्यादा को भूलकर आश्रमउपाश्रयवासी होने लगे, शिष्यों के व्यामोह में साधुता छिन्न-भिन्न होने लगी, ऐसे समय में आचार्य श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. ने आचार क्रांति का शंखनाद किया। __ वे आचार शैथिल्य देखकर अपने गुरु आचार्य श्री लालचन्द जी म.सा. से पृथक होकर विचरण करने लगे। श्रमण जीवन की विशुद्ध आराधना हेतु कठोर नियमों का पालन कर स्वयं के आचरण के द्वारा उन्होंने आचार क्रांति का सूत्रपात किया। यद्यपि इस प्रकार अलग होकर विचरण से उनके गुरु आचार्य श्री लालचन्द जी म.सा. उनसे बहुत नाराज हुए और उन्हें किसी प्रकार का सहयोग नहीं देने की घोषणा करते रहे, फिर भी वे उनके गुणानुवाद करते हुए उनका उपकार मानते रहे तथा जिन शासन की भव्य प्रभावना करते रहे। उनके आचार-विचार से प्रभावित होकर अनेक व्यक्तियों ने उनके पास साधु जीवन स्वीकार किया। आचार्य श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. उच्च कोटि के तपस्वी एवं उच्च क्रिया के धारक तो थे ही पर आगमिक गम्भीर अध्येता भी थे। शनैः शनैः आपकी धवल कीर्ति

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