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संस्कृत छाया :
अतिभीषणेन बन्धेन गुरूपीडावहः खलु जीवानाम् ।
मिथ्याविकल्पवशतः सर्वमपि खलु सौख्य-माभाति ।।७८।। गुजराती अर्थ :- अतिभीषण एवा बन्धन बड़े जीवो अतिभारे पीडाने वहन करनारा थाय छे तो पण मिथ्या विकल्प ना वशथी बधु सुख रूप लागे छे। हिन्दी अनुवाद :- प्रबलतम बन्धन द्वारा जीव को भारी पीड़ा सहनी पड़ती है फिर भी मिथ्या विकल्पवश उसे सभी में सुख ही सुख महसूस होता है। गाहा :
अणवरय-संपयट्टो मच्चू अवहरइ जीव-संघायं ।
एवं च ठिए भो भो भद्दा!सम्मं विचिंतेह ।।७९।। संस्कृत छाया :
अनवरतसम्प्रवृत्तो मृत्यु-रपहरति जीवसङघातम् |
एवं च स्थिते भो! भो! भद्रा सम्यग विचिन्तयत ।।७९।। गुजराती अर्थ :- निरंतर प्रवृत्त थतो मृत्यु रूपी सुभट जीव समूहनुं अपहरण करे छे। आ प्रमाणे संसारनी स्थिति होते छते हे! भद्द जीवो! तमे सारी रीते विचार करो। हिन्दी अनुवाद :- निरन्तर कार्य में प्रवृत्त मृत्यु रूपी यमराज जीवसमूह का अपहरण करता है। इसी प्रकार संसार की स्थिति है। अत: हे भद्रजीवो! तुम सम्यक् प्रकार विचार करो। गाहा :
केवलि-भणियं धम्मं मोत्तूणं नत्थि किंचि अन्नति ।
सरणं भव-भीयाणं भवियाणं भव-निबुड्डाणं।।८।। संस्कृत छाया :
केवलिभणितं धर्मं मुक्त्वा नास्ति किञ्चिदन्यदिति ।
शरणं भवभीतानां भविकानां भवनिमग्नानाम ||८०।। गुजराती अर्थ :- भवमां डूबेला प्राणीओने तथा भवथी डरेला भव्यो ने केवली भगवंते कहेला धर्म सिवाय बीजा कोईनु पण शरण नथी। हिन्दी अनुवाद :- संसार में निमग्न एवं भव से भयभीत भव्यों को केवली प्ररूपित धर्म के अतिरिक्त कोई भी शरण नहीं है।
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