Book Title: Sramana 1996 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ : ७ साधनिका बतलाने के लिए पाणिनि को 'वसोः सम्प्रसारणम्" सूत्र द्वारा विद्वस् शब्द का सम्प्रसारण ( विदुस् ) करना पड़ता है। तदनन्तर रुत्वविसर्ग एवं मूर्धन्यादेश करके 'विदुषः' शब्द की रूप-सिद्धि होती है जबकि हेमचन्द्र ने 'क्वसुष्मतौ९ सूत्र द्वारा विद्वस के 'वस्' को 'उष' कर दिया है। यहाँ पाणिनि की प्रक्रिया-शैली कितनी जटिल एवं अरुचिकर है और इसी स्थल पर हेम की दृष्टि कितनी साफ है। उन्होंने प्रातिपदिक के आगे श्रूयमाण विकार को ताड़ा एवं शीघ्र ही सीधे 'उष' आदेश करके काम चलता किया। २. सरलता के आग्रही हेमचन्द्र अपने सूत्रों की रचना में सुस्पष्टता एवं सुबोधता के लिए बहुत सतर्क रहते हैं। तभी तो पाणिनि का अनुकरण करते समय भी वे अपने उद्देश्य के प्रति सचेष्ट रहते हैं। जहाँ वे पाणिनि से कुछ ग्रहण करते हैं उनका वह ग्रहण भी अपने सरलता के सिद्धान्त के ढाँचे के अन्तर्गत ही होता है। यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अनेकत्र पाणिनि के एक सूत्र को दो सूत्रों में और दो सूत्रों को एक सूत्र में परिवर्तित करके अपने शब्दानुशासन में उपन्यस्त किया है। जैसे - (क) एक सूत्र का दो सूत्रों में विस्तारण - “एचोऽयवायावः।' – पाणिनि (।) एदैतोऽयाया९ - हेमचन्द्र ( || ) ओदौतोऽवाव।२ - हेमचन्द्र यहाँ पाणिनि के सूत्र में जटिलता है, क्योंकि किस स्थानी के स्थान पर कौन सा आदेश होगा, यह बताने के लिए अध्येता को सूत्र का विधिवत् परामर्श करना पड़ता है। जबकि हेमचन्द्र के दोनों सूत्रों में अल्पाक्षरता आ जाने के कारण अनायास विविक्तता आ गयी है। (ख) दो सूत्रों का एक सूत्र में संक्षेपण - (।) रो रि'।३ - पाणिनि (1) “लोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण:'।४ – पाणिनि 'रो रे लुग् दीर्घश्चादिदुतः'।१५ – हेमचन्द्र ३. हेमचन्द्र ने वर्गों के समूह का अभिधान करने वाली प्रत्याहार-पद्धति को नहीं अपनाया है। सीधे वर्गों को रखकर ही वह अपनी प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं। प्रत्याहारपद्धति वैज्ञानिक तो अवश्य है, परन्तु प्रत्याहार विस्मृत होने पर समस्या हो सकती है। वर्गों को स्मरण रखना सरल होता है। उपयोगिता की दृष्टि से माहेश्वर सूत्र एवं प्रत्याहार संस्कृत व्याकरणशास्त्र को पाणिनि की महत्त्वपूर्ण देन है। प्रत्याहार के अभाव में हेमचन्द्र एवं पाणिनि के सूत्र-संगठन में पर्याप्त भेद रहता है। जैसे - 'इको यणचिा'१६ – पाणिनि इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्।" - हेम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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