Book Title: Sramana 1996 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ जैन धर्म और हिन्दू धर्म ( सनातन धर्म ) का पारस्परिक सम्बन्ध : ७ लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक ( हिन्दू ) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है, चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक धर्म परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो, किन्तु आज न तो हिन्दू परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन एवं बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो, अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई भी एक पक्ष प्रमुख हो। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैन धर्म आज भी निवृत्ति प्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्ति प्रधान। फिर भी यह मानना उचित नहीं है कि जैन धर्म में प्रवृत्ति के एवं हिन्दू धर्म में निवृत्ति के तत्त्व नहीं हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है। इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा में समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और प्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति एकान्त निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्परायें भारतीय संस्कृति की वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को, वैदिक धारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आस्तिक हिन्दू धर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है। हिन्दू धर्म और दर्शन एक व्यापक परम्परा है या कहें कि विभिन्न विचार परम्पराओं का समूह है। उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्तिनिवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयों तक सभी कुछ सन्निविष्ट हैं। जो लोग उसे एक धर्म सम्प्रदाय में सीमित कर देते हैं, वे उसे संकीर्ण बना देते हैं। अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी हैं जिसका प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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