Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ विज्जावि होइ वलिया गहिया पुरिसेणभागधिज्जेण । सुकुलकुल बालिया विव असरिसपुरिसं पई पत्ता ॥ १० ॥ विनयादि गुणयुक्त पुन्यशाली की प्राप्त विद्या प्रभावक बनती है । जैसे उत्तम कुल में जन्मी कुमारिका असाधारण - उत्तम पुरुष को पति रूपमें प्राप्त कर महान बनती है । (मयणा - श्रीपाल समान) सिक्खाहि ताव विणयं किं ते विज्जाइ दुव्विणीयस्स । दुस्सिक्खिओ हु विणओ सुलहा किज्जा विणीयस्स ॥ ११ ॥ हे वत्स ! विनीत न हो वहाँ तक विनय का ही अभ्यास कर । क्योंकि दुर्विनीत ऐसे तुझे ज्ञानसे क्या प्रयोजन । वास्तव में विनय सीखना ही दुष्कर है, विद्या तो विनीत को अत्यन्त सुलभ है । विज्जं सिक्खह विज्जं गुणेह गहियं च मा पमाएह 1 गहिय गुणिया हु विज्जा परलोयसुहावहा होइ ॥ १२ ॥ हे सुविनीत वत्स ! तु विनय पूर्वक विद्या- श्रुतज्ञान को सीख, ग्रहण की हुइ विद्या और गुण को बार-बार याद कर उसमें लेश भी प्रमाद न कर क्योंकि ग्रहण की हुई विद्या को बार बार याद करने से ही वह परलोक में सुखकारी होती है । विएण सिक्खियाणं विज्जाणं परिसमत्तसुत्ताणं सक्काफलमणुभुत्तुं गुरुजणतुट्ठोवइट्ठाणं ॥ १३ ॥ विनयपूर्वक प्राप्त, प्रसन्नता पूर्वक गुरु द्वारा प्रदत्त और सूत्र संपूर्ण कंठस्थ उपस्थित ज्ञान का फल अवश्य अनुभवित किया जा सकता है । [ समाधिसमता रुप फल अवश्य प्राप्त होता है ] दुल्लभया आयरिया विज्जाणं दायगा समत्ताणं । ववगयचउक्कसाया दुल्लहगा सिक्खगा सीसा । इस विषम काल में समस्त श्रुतज्ञान के दाता आचार्य दुर्लभ है और चार कषाय रहित श्रुतज्ञान ग्राही शिष्य भी मिलने दुर्लभ है । पव्वइयस्स गिहिस्स वा विणयं चेव कुसला पसंसंति । न हु पावइ अविणीओ कित्तिं च जसंच लोगम्मि ॥ साधु हो या गृहस्थ उसके विनय गुणकी प्रशंसा ज्ञानी पुरुष अवश्य करते पूर्वाचार्य रचित सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं' ५

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34