Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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नाणं पयासयं सोहओ, तवो संजमो य गुत्तिध (क)रो । तिण्हं पि समाओगे, मुक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ ८० ॥
ज्ञान प्रकाशक है, तप शुद्धिकर है, संयम रक्षक है (नये कर्मोका निवारक) इस प्रकार ज्ञान, तप और संयम इन तीनों के योग से जिनशासन में मोक्ष कहा
है।
किं इत्तो लट्ठयरं, अच्छेरतरं सुंदरतरं वा । चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोयंति ॥ ८१ ॥
जिस प्रकार जगत के लोग चंद्र को देखते है वैसे ही बहुश्रुत गीतार्थ पुरुष के मुख को बार बार देखते है। इससे श्रेष्ठतर आश्चर्यकारक और अतिशय सुंदर कौनसी वस्तु है। - चंदाओ नियइ जोण्हा बहुस्सुयमुहाउ नियइ जिणवयणं जं सोऊण मणुस्सा, तरंति संसार कंतारं ॥ २ ॥
चंद्र से जैसे शीतल - निर्मल ज्योत्सना निकलती है, और सभी लोगोको आनंदित करती है, वैसे गीतार्थ ज्ञानी पुरुष के मुखसे चंदन समान शीतल जिनवचन निकलते है । जिसे श्रवणकर मनुष्य भवाटवी को पार करते हैं । सूई जहा ससुत्ता न नस्सई कयवरंमि पडियावि । जीवो तहा ससुत्तो न नस्सइ गयो वि संसारे ॥ १३ ॥
धागे से युक्त सूई कचरे में गिरी हुई भी गुम नहीं होती, वैसे आगम का अभ्यासी ज्ञानी जीव संसार-भवनमें भटकने पर भी (अटकता नहीं । अर्थात्) अटवी को पार कर लेता है । सूई जहा असुत्ता नासइ सुत्ते अदिस्समामि । जीवो तहा असुत्तो नासइ मिच्छत्तसंजुत्तो ॥ ८४ ॥
जैसे धागे से रहित सूई गुम हो जाती है वैसे सूत्र-शास्त्र बोध रहित मिथ्यात्व युक्त जीवभवाटवी में गुम हो जाता है । भ्रमण करता है । परमत्थंमि सुदिढे अविणढेसु तवसंजमगुणेसु । लब्मइ गई विसिट्ठा सरीरसारे विनडेवि ॥ ८५ ____ श्रुतज्ञान से परमार्थ का दर्शन होने से, तप-संयम गुण जीवनभर अखंडित रहने से मृत्यु के समय में शरीर संपत्ति का नाश होने पर भी जीवको विशिष्ट पूर्वाचार्य रचित "सिरिचंदावेज्मय पइण्णय'
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