Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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गति-सद्गति और सिद्धिगति प्राप्त होती है । जह आगमेण विज्जो, जाणइ वाहिं तिपिच्छिउं निउणो । तह आगमेण नाणी, जाणइ सोहिं चरित्तस्स ॥ ८६ ॥
जैसे वैद्य वैदकशास्त्र के ज्ञान से रोग की निपुणता से चिकित्सा करना जानता है । वैसे श्रुतज्ञान से मुनि चारित्र की शुद्धि कैसे करनी उसे अच्छी प्रकार जानता है । जह आगमेण हीणो विज्जो वाहिस्स न गुणइ तिगिच्छं। तह आगमपरिहीणो, चरित्तसोहिं न याणेइ ॥ ७ ॥
वैदक ग्रन्थों के ज्ञान बिना जैसे वैद्य व्याधि की चिकित्सा नहीं जान सकता वैसे आगमिक ज्ञान रहित मुनि चारित्र शुद्धि का उपाय नहीं जान सकता । तम्हातित्थयरपरुवियंमि नाणम्मि . अत्थजुत्तम्मि । उज्जोओ कायव्वो नरेण मुक्खाभिकामेण ॥ ८८ ॥ . उस कारण से मोक्षाभिलाषी आत्मा को भी तीर्थंकर प्ररुपित आगमों के सूत्र अर्थ के अध्ययन में सतत उद्यम करना चाहिए। ... बारसविहंमि वि तवे, सब्मिंतर बाहिरे जिणक्खाए । नविअत्थि नवि य होही, सज्झाय समं तवोकम्मं ॥ ८९ ॥ ____ कहा भी है कि श्री जिनेश्वर परमात्मा के बताये हुए बाह्य और अभ्यंतर तप के बारह प्रकार में स्वाध्याय के समान अन्य कोइ तप न है, न होगा । मेहा होज्ज न हुज्जव जं मेहा उवसमेण कम्माणं । उज्जोओ कायव्वो नाणं अभिकंखमाणेण ॥ ९० ॥
ज्ञानाभ्यास की रूचिवालोको बुद्धि हो या न हो परंतु ज्ञानाभ्यास में उद्यम अवश्य करना चाहिए । क्योंकि बुद्धि ज्ञानावरणीयादि कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं और उद्यम करने से कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है । [बुद्धि की मंदता जानकर उद्यम न करने से ज्ञानावरणीयादि कर्म नये बंधते है ।] कम्ममसंखज्जभवं खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। बहुयभवसंचियं पि हु सज्झाएणं खणे खवइ ॥ ९१ ॥ . असंख्य जन्मों के उपार्जित कर्म युक्त आत्मा उन कर्मों को प्रति समय
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पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'