Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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इससे उस देश-काल में एक भी पद ( नवक्रासदि) का चिंतन आराधना में उपयुक्त होकर जो करता है, उसे जिनेश्वरों ने आराधक कहा है । आराहणोवउत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं । उक्कोसं तिणि भवे गंतूणं लहइ निव्वाणं ॥ ९८ ॥
सुविहित मुनि आराधना में एकाग्र बन समाधि पूर्वक काल कर उत्कृष्ट से तीन भव में अवश्य मोक्ष को प्राप्त करता है ।
नाणस्स गुणविसेसा केइ मए वन्निया समासेणं । चरणस्स गुण विसेसा, ओहिय हियया निसामेह ॥ ९९ ॥
इस प्रकार श्रुत ज्ञान के विशिष्ट गुण - महान लाभ का संक्षेप में वर्णन
किया |
अब चारित्र के विशिष्ट गुण एकाग्र चित्त वाले बनकर सुनो ॥
'चारित्रगुण'
ते धन्ना जे धम्मं चरिडं जिण देसियं पयत्तेणं । गिहपासबंधाओ उम्मुक्का सव्वभावेणं ॥ १०० ॥
जिनेश्वर परमात्माके कहे हुए धर्मका प्रयत्न पूर्वक पालन करने के लिए जो सर्व प्रकार से गृहपाश के बंधन से मुक्त होते हैं । वे धन्य है । भावेण अणण्णमणा जिणवयणं जे नरा अणुचरंति । ते मरणंमि उवग्गे न विसीयन्ति गुणसमिद्धा ॥ १०१ ॥
विशुद्ध भाव से एकाग्र चित्त युक्त होकर जो पुरुष (मानव) जिनवचन का पालन करता है । वे गुण-समृद्ध मुनि मृत्यु का समय आने पर भी अंश मात्र विषाद-ग्लानि का अनुभव नहीं करते ।
सीयंति ते मणुस्सा सामण्णं दुल्लहंपि लधूण | जो अप्पा न निउत्तो दुक्खविमुक्खमि मग्गंमि ॥ १०२ ॥
दुःख मात्र से मुक्ति कारक ऐसे मोक्ष मार्ग में जिसने अपनी आत्मा को स्थिर नहीं बनाया वे दुर्लभ ऐसे श्रवणपने को प्राप्त करके भी दुःखी होते हैं ।
दुक्खाण ते मणुस्सा, पारं गच्छंति जे य दढधीया । भावेण अणन्नमणा पारतहियं गवेसंति ॥ १०३ ॥
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पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'