Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 33
________________ एवं आराहितो जिणोवइटुं समाहिमरणं तु । उद्धरिय भाव सल्लो, सुज्झइ जीवो धुयकिलेसो ॥ १७० ॥ इस प्रकार संकलेश को दूर कर भावशल्य का उद्धार करनेवाली आत्मा जिनोक्त समाधि मरण की आराधना से शुद्ध होती है । जाणतेण वि जइणा वयाइयारस्स सोहणोवायं । परसक्खिया विसोही कायव्वा भावसल्लस्स ॥ १७१ ॥ व्रतोंके अतिचारों की शद्धि के उपायों के ज्ञाता मनिको भी अपने भावशल्य की विशुद्धि गुरू आदि की साक्षीसे ही करनी चाहिए । जह सकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अप्पणो बाही (हिं) सो से करेइ तिगिच्छं, साहू वि तहा गुरु सगासे ॥ १७२ ॥ - एक चिकित्सक कुशल भी स्क्सैग की चिकित्सा दूसरे से करवाता है वैसे मुनि को भी गुरु के पास आलोचना लेनी चाहिए । इत्थं समुप्पइ मुणिपी पञ्चज्जा मरणकालसमयंमि । । जो उन मुज्झइ मरणे साहू (सो हू ?) आराहओ मणिओ ॥ १७३॥ इस प्रकार मरण समय में मुनिको विशुद्ध चारित्र परिणाम उत्पन्न होते है, जो मुनि मरण समय में मोहित नहीं होता, उसे ज्ञानी आराधक कहते हैं। विणयं आयरियगुणे सीसगुणे विणयनिग्गहगुणे य ।। नाण गुणे चरणगुणे मरणगुणविहिं च सोऊण ॥ १७४ ॥ तह वत्तह काउं जे जह मुंचह गब्भवासवसहीणं । मरणपुणब्भव-जम्मणदुग्गइविणिवायगमणाणं ॥ १७५ ॥ हे मुमुक्षुआत्मा ! विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनय निग्रहगुण, ज्ञानगुण, चरणगुण और मरणगुण की विधि सुनकर इस प्रकार जीवन जीओ कि जिससे गर्भावास के दु:ख से, मरण, पुनर्भव, जन्म और दुर्गति गमन से सर्वथा मुक्त हो सको ऐसी इस ग्रन्थकार के हृदयकी अभिलाषा है। ३२ पूर्वाचार्य रचित

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