Book Title: Sirichandvejjhay Painnayam
Author(s): Purvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 32
________________ न य संतोसं पत्तो, ‘सएहिं कम्मेहि दुक्खमूलेहिं । न य लद्धा परिसुद्धा, बुद्धी सम्मत्तसंजुत्ता ॥ १३ ॥ . परंतु दु:ख के कारणभूत स्वयं के कर्मोसे अभी तक मुझे न तो संतोष प्राप्त हुआ और न सम्यक्त्व युक्त विशुद्ध बुद्धि प्राप्त हुई। सुचिरंपि ते मणुस्सा, भमंति संसारसायरे दुग्गे । . जे य करंति पमायं, दुक्खविमुक्खंमि धम्ममि ॥ १६८ ॥ दुःख से मुक्ति वाचकधर्म में प्रमादी जीव महा भयंकर ऐसे संसार समुद्र में दीर्घकाल तक भ्रमण करते हैं। दुक्खाण ते मणुसा पारं गच्छंति जे य दढधिईया । पुवपुरिसाणुचिन्नं जिणवयणपहं न मुंचंति ॥ १६५ ॥ दृढस्थिर बुद्धिवाले मानव पूर्वपुरूषाचरित जिनवचन के मार्ग को नहीं छोडते वे सर्व दु:ख से मुक्त बनते हैं । मग्गंति परम सुक्खं ते पुरिसा जे खवंति उज्जुत्ता । कोहं माणं मायं लोभं तह राग दोसं च ॥ १६६ ॥ जो उद्यमी जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष का क्षय करता है, वह परम शाश्वत सुख को प्राप्त करता है । नवि माया नविय पिया न बंधवा नवि पियाई मित्ताई । । पुरिसस्स मरणकाले, न हुंति आलंबणं किंचि ॥ १६७ ॥ मानव के मरण समय में माता, पिता, भाई, प्रिय मित्र, कोई भी किंचित् मात्र भी आलंबन रूप नहीं बनते । मरण से बचा नहीं सकते । हिरनं सुवनं वा दासीदासं च जाणज्जुग्गं वा । पुरिसस्स मरणकाले, न हुंति आलंबणं किंचि ॥ १६८ ॥ ... रजत, स्वर्ण, दास, दासी, रथ, पालखी आदि कोई भी बाह्य पदार्थ मरण समय में आलंबन नहीं हो सकते। सिंबल हत्यिक जोहबलं धणवलं रहबलं च । . पुरिससमरणकाले, ने इंति औलंबा किंति ॥ १६९ . . . अश्वबल, मर्जबल, सैनिकबल, धनुर्बला स्थान आदि कोई भी संरक्षक । "पदार्थ मरण से बंची नहीं सकते । ', पर्वाचार्य रचिन रिझय पइण्णय' ...-LOR

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